बिखरते परिवार…. टूटते रिश्ते…..
1 min readबिखरते परिवार…….. टूटते रिश्ते……..
लेखिका -मधु त्यागी
परिवारों के बीच फासले लगातार बढ़ते जा रहे हैं,पहले संयुक्त परिवार थे।बच्चे दादा-दादी , चाचा- चाची, ताऊ-ताई, बुआ इन सभी के बीच अपना बचपन जीते थे, इनसे कहानियाँ सुनते थे, लोरी सुनते थे, दुखी होने पर इन्हीं रिश्तों की गोद में सिर रखकर अपने नन्हें से दिल के छोटे-छोटे दुख बाँटते थे, अपनी छोटी-छोटी खुशियाँ कई- कई दिनों तक उत्सव की तरह मनाते थे।
संयुक्त परिवार का अस्तित्व समाप्त हुआ, एकल परिवार का उदय हुआ , सभी एकल परिवार का स्वप्न देखने लगे और धीरे-धीरे दादा-दादी , चाचा- चाची, ताऊ-ताई, बुआ जैसे सभी रिश्ते ख़त्म हो गए, रिश्तों से प्यार खत्म हो गया ,यहाँ तक कि बच्चों को इन रिश्तेदारों का घर आना भी बुरा लगने लगा।रिश्ते थे तो प्यार था, प्यार था तो समझदारी भी थी और समझदारी के कारण रिश्तों में गर्माहट भी थी पर आज सभी रिश्तें ठंडे पड़ गए हैं।
भविष्य में हमारी आने वाली पीढ़ियाँ तो इन रिश्तों के सिर्फ नाम से ही परिचित होंगी। परिवार छोटे हो गए, हम दो और हमारे दो का चलन हुआ, दो बच्चों के बीच एक रिश्ता खत्म हो गया, दो लड़के हों तो बुआ का, चाचा या ताऊ का रिश्ता खत्म,दो लड़कियाँ हों तो मामा का, एक लड़का और एक लड़की हो तो मौसी , ताऊ और चाचा का रिश्ता खत्म और अब तो अति हो गई अधिकतर पति- पत्नी एक ही बच्चा चाहते हैं एक के होने से मौसी, मामा, चाचा,ताऊ , बुआ सभी रिश्ते खत्म।
वह समय अब दूर नहीं जब बच्चे इन सब रिश्तों की कहानियाँ किताबों में पढ़ा करेंगे और आश्चर्यचकित हुआ करेंगे ये सोचकर कि ऐसा भी समय था, जब इतने सारे लोग ,इतने सारे रिश्तों के बीच एक ही छत के नीचे प्यार से रहते थे।दादी कहानियाँ सुनाती थीं, दादा जी शाम को पार्क में घुमाने ले जाते थे, बुआ कॉलेज से आते हुए खाने की मनपसंद चीज़ें लाती थी, चाचा खिलौने दिलवाते थे, मौसी मनुहार करती आगे पीछे घूमती थी, मामा नाज़-नखरे उठाते थे।
हमारी भावी पीढ़ी को इन रिश्तों के नाम रटने पड़ेंगे, इन रिश्तों के मतलब रटने पड़ेंगे। उन्हें ये याद करना पड़ेगा कि माँ की बहन मौसी , माँ का भाई मामा , पापा की बहन बुआ और पापा के बड़े भाई ताऊ जी और छोटे भाई चाचा जी कहलाते हैं।
जिन रिश्तों को आज हम जी रहे हैं, महसूस कर रहे हैं, हमारी आने वाली पीढ़ी उन्हें बेजान किताबों के पन्नों में पढ़ेगी और बार-बार पढ़कर रटेगी, याद रखने की कोशिश करेगी कि कौन-सा रिश्ता क्या कहलाता है?कल्पना करेगी उन रिश्तों को महसूस करने की जो बेजान किताबों के पन्नों में कैद होंगे।परिवर्तन प्रकृति का नियम है।जीवन में, परिवार में, समाज में, राष्ट्र में परिवर्तन आना ज़रूरी भी है परंतु परिवर्तन सकारात्मक हो तो उसे विकास कहा जाता है और नकारात्मक हो तो उसे पतन ही कहा जाएगा।
स्पष्ट है कि जो परिवर्तन हमारे जीवन में आ रहा है वह हमें पतन की ओर ले जाने वाला है।ऐसी अवस्था में निस्संदेह हम भौतिक रूप से विकास अवश्य करेंगे परंतु यह भी सर्वथा सत्य है कि हमारा सांस्कृतिक पतन भी अवश्य होगा।जो संस्कार दादा-दादी, चाचा चाची, मौसा मौसी बच्चों को दे सकतें हैं , वह किताबें नहीं दे सकतीं रिश्ते मरते जा रहे हैं, महसूस करने की शक्ति क्षीण होती जा रही है।
यह सही है कि जो बीत चुका, उसके बारे में सोचना बेकार है और जिसे देखा ही नहीं, उसके लिए चिंता क्यों की जाए लेकिन जो वर्तमान हमारे समक्ष है उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता और यह सर्वथा सत्य है कि अपने वर्तमान को सजाकर, सॅंवारकर रखने से हमारा भूत और भविष्य दोनों ही सुरक्षित रहेंगे।
आवश्यकता है सिर्फ एक नई पहल की , परिवार में जो रिश्तें बचे है कम से कम उन रिश्तों को तो हम सॅंभालकर, सॅंजोकर तो चल ही सकते हैं।माता-पिता, भाई-बहन आदि जो भी एक साथ रहते हैं, वे सब तो प्यार की मज़बूत डोर से बंधकर रह सकते हैं।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज बहुत सारे मधुर रिश्तें अपने अंतिम कगार पर हैं।हमारी बुद्धिमता और महानता इसी में हैं कि हम ,अंतिम कगार पर खड़े उन मधुर रिश्तों को ज़िंदा रखें ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी उन रिश्तों को जी पाएँ और उनके मधुर रस से अपने जीवन को मधुर बना सके।
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ज़रूरत एक नई पहल की ………..
लेखिका -मधु त्यागी
वर्तमान समय में माता-पिता के लिए अपने बच्चों को संभालना और समझाना बहुत मुश्किल हो गया है, आज के इस गतिशील जीवन में उनके पास इतना समय ही नहीं है कि वह बच्चों को सही और गलत के बीच का अंतर बताएँ, सही राह दिखाएँ । आज बच्चों का सबसे बड़ा मार्गदर्शक है इंटरनेट और इंटरनेट मार्ग दर्शन नहीं कर सकता, केवल जानकारी दे सकता है। सही और गलत तो सिर्फ माता- पिता ही बता सकते हैं पर आज की इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में उनके पास बच्चों के मार्गदर्शन का समय ही नही है ।
जो समय उन्हें बच्चों के साथ बैठकर उन्हें पढ़ाने में, रोज़मर्रा की बातें करने में बिताना चाहिए वह ट्यूशन और हॉबी क्लासेज़़ की भेंट चढ़ जाता है, इस सबके बाद बच्चों के पास इतना समय ही नहीं बचता कि वे अपने बचपन को जी भरकर जी पाएँ ,अपने भविष्य के लिए बचपन की मीठी यादें सँजो पाएँ ।
दस -ग्यारह साल का होने तक बच्चों को बच्चा समझकर उनकी सारी इच्छााएँ पूरी की जाती हैं, उनके गलती करने पर स्वयं माफी मांगी जाती है और उन्हें ये भरोसा दिलाया जाता है कि माता-पिता हर समय उनके साथ हैं ।
बचपन से ही बच्चों से कहा जाता है यह मत करो, वह मत करो।क्यों करो और क्यों नहीं करो ,यह नहीं बताया जाता ।बच्चों को सही गलत की पहचान करने का नजरिया नहीं देते माता-पिता, सही और गलत थाली में परोसकर उनके सामने रख देते हैं। बढ़ते बच्चे ,उम्र के उस पड़ाव पर पहुँचते हैं जब उन्हें यह अहसास होता है कि उनके भी व्यक्तिगत विचार हैं ,सीमाएँ हैं, वह अपने व्यक्तिगत निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं ,किसी की दखलअंदाजी नहीं चाहते।
यहाँ तक कि अपने माता- पिता की दखलअंदाजी भी बर्दाश्त नहीं करते। यहीं से आरंभ होता है माता पिता और बच्चों के विचारों का टकराव और इस सबका खामियाज़ा माता -पिता को ही नहीं बच्चों को भी भुगतना पड़ता है।
अभिभावक अपने समय के हिसाब से बच्चों की परवरिश करना चाहते हैं पर वे भूल जाते हैं कि उनके समय में और वर्तमान समय में ज़मीन- आसमान का अंतर है। वास्तव में आज के बच्चों के मार्गदर्शक माता- पिता नहीं, टी. वी. और इंटरनेट हैं, अपने माता-पिता से ज़्यादा टी. वी. और इंटरनेट की सुनते हैं, इन्हीं के बताए रास्ते पर चलते हैं, इन्हें ही अपना सही,सच्चा दोस्त और मार्गदर्शक मानते हैं। माता-पिता अपनी सोच, अपना रास्ता बदलना नहीं चाहते, अपने बच्चों के कदम से कदम मिलाकर चलने से कतराते हैं और दूसरी तरफ बच्चे पीछे मुड़कर देखना भी नहीं चाहते।
परिणाम यह होता है कि माता-पिता और बच्चों के बीच का फासला बढ़ता चला जाता है । अभिभावकों को यह समझना होगा कि इक्कीसवीं सदी के बच्चे माता-पिता के साथ चलने के लिए पीछे नहीं मुड़ेगे अपितु अभिभावकों को ही आगे बढ़कर अपने बच्चों के कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करनी होगी।
अगर आज सही समय पर माता-पिता ने बच्चों के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए अपने कदम नहीं बढ़ाए तो बहुत देर हो जाएगी और अभिभावकों और बच्चों के बीच की खाई बढ़ती चली जाएगी ।आज समय की माँग और जरूरत यही है कि अभिभावक आगे आए ,बच्चों की जरूरतों को समझे और उनके कदम के साथ कदम मिलाकर चलें ।
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Eswar kare is seekh se adhik se adhik log prabhavit ho aur apne mauzood rishton ko ahamiyat de aur zindagi mein sabko saath leke chale.
शुक्रिया,धन्यवाद, आभार दीदी
So true, such a beautifully crafted piece. We all have been so lucky to have so many close relatives and got to learn so much from each one of them. No books can teach us better than the relatives who guided us with their real life experiences. There is a huge role the relations play in a child’s upbringing. The future generations unfortunately will not be able to experience such diversity in relations. But the more unfortunate deal is that people are not giving enough importance to the relations they already have like you mentioned, primarily due to the busy lifestyles. It is important to work hard and earn a living but life itself isn’t a race or competition. Hope people realize the value these relations bring to one’s life. Healthy relations still play a vital role in keeping a healthy emotional and mental well being.
किताबों से सीखा नही जा सकता, सिर्फ़ रटा जा सकता है . जीते जागते रिश्तों से सीखने की ज़रूरत नही पड़ती,हम अनजाने ही सब सीख जाते हैं और हमें पता भी नही चलता.
So true relations are very much important in life
बिलकुल, सत्य वचन