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Story – Personal Space , क़हानी – पर्सनल स्पेस

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                                                    पर्सनल स्पेस ( एक सच्ची क़हानी )

लेखिका – मधु त्यागी 

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                     आज हमारी शादी की दसवीं सालगिरह है ,पर ऐसा लगता है जैसे कल ही की बात है। जब मैंने नई नवेली दुल्हन के रूप में ससुराल की दहलीज़ पर पहला कदम रखा था। हर लड़की की तरह दुल्हन बनने के सपने , सपनों के राजकुमार को जीवन साथी के रूप में पाने के सपने देख रही थी मैं….. पर मन में डर था, आशंका थी कि बाबा तो हैं नहीं ,अकेली माँ मेरे ये सपने कैसे पूरे कर पाएगी ?

पर वो कहते हैं ना, जोड़ियाँ तो ऊपरवाला बनाकर भेजता है, औरों का तो मुझे पता नहीं … पर मेरी और अमन की जोड़ी तो ऊपर वाले ने ही बनाई थी।अमन का मेरी ज़िंदगी में आना महज़ एक इत्तेफाक था।

   मेरी सबसे अच्छी सहेली मीरा की शादी की बात चल रही थी और लड़के वाले उसे देखने आने वाले थे। उसके मम्मी पापा चाहते थे कि जब लड़के वाले आएँ तो मैं मीरा के साथ, मीरा के पास ही रहूँ। मीरा अपने कमरे में तैयार हो रही थी और मैं ड्राईंग रूम का मुआयना कर रही थी…. कि सब कुछ अपनी जगह पर करीने से रखा है या नहीं, आंटी रसोईघर का काम देख रहीं थीं । अंकल कोल्ड ड्रींक्स लेने बाज़ार गए थे…. तभी डोर बैल बजी …..

आंटी थोड़ा घबरा गईं क्योंकि अंकल घर पर नहीं थे, मैंने उन्हें हौसला देते हुए कहा- आप घबराइए नहीं आंटी , मैं हूँ ना आपके साथ और अंकल भी आते ही होंगे।

मैंने दरवाज़ा खोला,  सामने एक अधेड़ उम्र दंपत्ती और उनके पीछे एक खूबसूरत नवयुवक खड़ा था। नमस्ते करते हुए, मैंने उन्हें अंदर आने का निमंत्रण दिया। वह युवक मुझे एकटक देख रहा था, देख नहीं रहा था निहार रहा था। मुझे अजीब लगा पर उसे अनदेखा  कर…. मैं रसोईघर की तरफ बढ़ गई।

ट्रे में पानी लेकर मैं ड्राईंग रूम में आई तो वह युवक मुुझे कनखियों से देखकर मुस्कुरा रहा था। सब चुप थे, अचानक से एक आवाज़ आई – मुझे पसंद है……. बहुत पसंद है।

आंटी अंकल दोनों हैरान, परेशान थे। क्या कह रहे हो बेटा … कौन पसंद है ?

आपकी बेटी मुझे पसंद है अंकल।

मेरे पैरों तले जैसे जंमीन ही निकल गई थी , मुझे समझ ही नहीं आ रहा था क्या करूँ, क्या ना करूँ? ?

 ड्राईंग रूम में सन्नाटा था, जो पल- पल बढ़ता ही जा रहा था।

सन्नाटा तोड़ते हुए अंकल ने कहा- अमन बेटा ये हमारी बेटी की सहेली रीमा है, मीरा तो अपने कमरे में है पर लगता है….. अब मीरा के आने की ज़रूरत नहीं है।

मैंने किसी तरह स्वयं को संभाला और भारी कदमों से अपने घर की ओर चल दी ।

लड़के वालों ने क्या जवाब दिया… …? माँ का सवाल अनसुना कर मैं अपने कमरे में जाकर , बिस्तर में धँस गई, लेटे- लेटे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।

सुबह आँख तब खुलीं जब माँ के भजन और मंदिर की घंटी की मीठी आवाज़ कानों में पड़ी। जाग तो मैं गई थी पर बिस्तर से उठकर बाहर जाने का मन बिल्कुल नहीं था क्योंकि माँ के हज़ारों सवाल बाहें फैलाए खड़े थे जिनके जवाब मेरे पास नहीं थे।

    सारा दिन मैं माँ से नज़रे बचाती, छिपती रही पर शाम को माँ मेरे कमरे में ही आ गईं और फिर वही सवाल – बेटा मीरा को जो देखने आने वालेे थे , आए नहीं क्या ? मैंने माँ की गोद में सिर रखा और सुबक सुबक कर रोने लगी। रोते – रोते माँ को पूरी बात बताई, बहुत देर तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा।

सन्नाटा गहराता जा रहा था और मुझे ऐसा महसूस होने लगा था जैसे मुझसे कोई अपराध हो गया है। तभी माँ ने प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा – तुम रो क्यों रही हो ? अपने आप को दोष मत दो बेटा। जब- जब, जो-जो होना होता है…. वह होता ही है। अब रही मीरा की शादी की बात … जोड़ियाँ तो ऊपर से बनकर आती हैं।

ईश्वर ने मीरा की जोड़ी किसी और के साथ बनाई होगी और पहुँच गए ये लोग। ईश्वर ने तुम्हें सिर्फ एक ज़रिया बनाया इस रिश्ते को खत्म करने का। तुम स्वयं को दोष मत दो , देखना जल्दी ही मीरा का रिश्ता भी होगा और शादी भी जल्दी ही हो जाएगी।

माँ की बातें सुनकर मन थोड़ा- सा शांत हुआ पर उस लड़के का चेहरा, उसका मुस्कुराना मैं भूल ही नहीं पा रही थी। रह रहकर उसके शब्द कानों में गूँज रहे थे – मुझे पसंद है…. बहुत पसंद है। माँ के जाने के बाद मैंने स्टूल, आईने के सामने खिसकाया और उस पर बैठकर अपने चेहरे को ऐसे निहारने लगी…. जैसे अपना चेहरा पहली बार देखा हो ,

शायद आज से पहले मैंने अपने आपको कभी घ्यान से देखा ही नहीं था, अपने आपसे प्यार हो गया था मुझे ।

खुद को घ्यान से देखा तो जाना कि सचमुच मैं बहुत सुंदर और आकर्षक थी, मेरी बड़ी बड़ी सुरमई आँखें, बिना बोले ही बहुत कुछ कह देतीं थीं। पतले गुलाबी ओंठ, हल्के गुलाबी गाल जो इस समय खुद से ही शरमाने के कारण लाल हो गए थे ,कंधों पर लहराते काले घने लंबे बाल……….मैं सोच रही थी कि आज से पहले मुझे अपनी ये खूबसूरती नज़र क्यों नहीं आई ?

क्या नाम था उसका …जिसके कारण आज मुझे खुद से प्यार हो गया ? क्या वो दोबारा ,कभी मिलेगा ? अगले ही पल मन दुखी हो गया… ये सोचकर कि मेरी वजह से मीरा का रिश्ता नहीं हो पाया, फिर याद आया कि मीरा के घर से तो मैं चली आई थी और मेरे आने के बाद वहाँ क्या हुआ ……? ये तो मुझे पता ही नहीं।

हर पल विचार बदल रहे थे …विचारों का एक दरिया- सा उमड़ आया था। मेरे आने के बाद शायद उस लड़के ने मीरा को देखा हो और पसंद कर लिया हो ….मीरा है भी तो बहुत सुंदर…. और दूसरे ही पल, दिल के दूसरे कोने से आवाज़ आई…. नहीं नहीं…..उस लड़के ने तो मुझे पसंद किया था फिर वो मीरा के लिए हाँ कैसे कह सकता है ? ऐसे थोड़े ही होता है कि एक पल में किसी को पसंद करो और दूसरे ही पल कोई और पसंद आ जाए।

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        मीरा मेरी सबसे अच्छी सहेली थी उसका बुरा तो मैं कतई नहीं चाहती थी पर कहीं ना कहीं लग रहा था कि मैं बेईमान हो गई हूँ। मीरा के घर जाने की, आंटी अंकल से नजर मिलाने की हिम्मत नही थी मुझमें या यूँ कहिए कि दिल का चोर रोक रहा था, बाँधकर बैठा था,मुझे ।

शाम को डोर बैल बजी, मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने अंकल खड़े थे, मैंने नमस्ते की , अंकल ने प्यार से सिर पर हाथ रखा  और बोले – अरे तुम तो मीरा से मिले बिना एक पल भी नहीं रह पातीं और आज पूरे दो दिन हो गए तुम दोनों को मिले…… क्या हुआ ?

कुछ नहीं अंकल, काॅलेज का प्रोजैक्ट पूरा करने में बिज़ी थी  – मैंने बिना नज़र मिलाए, सिर झुकाकर जवाब दिया।

माँ को बधाई देते हुए अंकल बोले – दया बहन , अमन को रीमा बहुत पसंद है तुम्हे ठीक लगे तो बात आगे चलाऊँ।

पर अंकल ये तो गलत है ….वो मीरा को देखने आए थे। मैंने दबे स्वर में विरोध करते हुए कहा।

माँ को अंकल की बात सही लगी, मुस्कुराते हुए बोलीं- हाँ भाई साहब, बी.एड. भी पूरा होने वाला है ,शादी तो करनी ही है और वैसे भी इसके बाबा तो हैं नहीं जो इसके लिए लड़का ढूँढेंगे। आप बात कर ही लीजिए ,मेरी ज़िंदगी आसान हो जाएगी।

पर मैं इसके लिए तैयार नहीं हूँ, मुझे नहीं करनी शादी-वादी। कहकर मैं अपने कमरे में चली आई।

अचानक आईने पर नज़र पड़ी तो अहसास हुआ कि मैं बिना बात के मुस्कुरा रही थी और मन नही मन दोहरा रही थी , अमन………अमन…..अच्छा नाम है।

अगले दिन काॅलेज गई तो गेट पर अमन को देखकर मन में अनजानी सी खुशी की लहर हिलोरें लेने लगी। ना चाहते हुए भी उसे अनदेखा करके आगे बढ़ गई, वह मेरा पीछा करता रहा पर मैंने उसकी तरफ देखा ही नहीं।

दोपहर दो बजे जब घर जाने के लिए निकली तो मेरी नज़रें अमन को ढूँढने लगीं। चारों तरफ नज़र दौड़ाई पर अमन कहीं दिखाई नही दिया। मैं निराश होकर , खुद को ही कोसने लगी कि अचानक से अमन मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और रिक्वैस्ट करने लगा- किसी कैफे में बैठें, बात करना चाहता हूँ तुमसे।

चाहती तो मै भी यही थी इसलिए थोड़ी ना नुकुर के बाद मैंने हामी भर दी।

 कैफे में बैठकर अमन ने सारी गलतफहमियाँ, गिले-शिकवे दूर किए और मेरा हाथ, अपने हाथों में लेकर मुझे भरोसा दिया कि सारी ज़िंदगी मुझे खुश रखेगा और फिर सिलसिला शुरू हुआ हमारी मुलाकातों का, हमारे प्यार का। इसी बीच मीरा की शादी भी हो गई ,उसकी ससुराल बहुत अच्छी थी ,लड़का आई.ए.एस. था। मैं बहुत खुश थी, जैसे मन से कोई बोझ उतर गया हो।

हमारी शादी की तारीख पक्की होने के साथ ही हमारे मुलाकातें भी बढ़ गईं थी, बातों के विषय बदल चुके थे। हम कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे इसलिए खुलंकर एक दूसरे को अपनी ख्वाहिशें बता देना चाहते थे कि बाद में किसी बात को लेकर लड़ाई- झगड़े ना हों।

अमन और उसके मम्मी पापा चाहते थे कि शादी के बाद मैं नौकरी ना करूँ, घर का काम संभालूँ ,सुनकर मुझे बुरा लगा। मैंने बी.एड. किया था, नौकरी करना चाहती थी पर अमन के प्यार की खातिर मैने अपनी इस इच्छा की बलि चढ़ा दी, मैं अमन को खोना नहीं चाहती थी। हमारी शादी हो गई , डोली में बैठकर मै अपने सपनों के राजकुमार के साथ ससुराल आ गई।

ससुराल आकर पता चला कि मेरे सास-ससुर थोड़े पुराने ख्यालात के है। घर के कामों के लिए नौकर रखना जैसेे उनकी शान के खिलाफ था। घर के सभी काम मुझे अकेले ही करने पड़ते थे लेकिन अमन के प्यार की छाँव में, चार महीने कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। अमन भी अक्सर छुट्टी ले लेते थे , कभी कहीं घुमाने ले जाते, कभी पिक्चर ,कभी पार्टी…… पर ज़िंदगी हमेशा एक ही रफ्तार और एक ही मूड से नही चलती।

समय ने करवट ली, अमन अपने काम में व्यस्त हो गए और मैं घर में खुद को अकेला महसूस करने लगी। मुझे लगने लगा कि मुझे भी नौकरी कर लेनी चाहिए। अमन को और मम्मी पापा को अपनी बात समझाई ,बहुत जतन करने पड़े सबको मनाने के लिए, उनकी शर्त थी कि नौकरी के साथ-साथ घर का काम भी मैं ही करूँगी और उनकी सारी शर्तों को मानकर मैंने नौकरी शुरू कर दी। धीरे-धीरे सबको मेरा नौकरी करना अच्छा लगने लगा क्योंकि अपनी तनख्वाह से कुछ रुपये घर खर्च के लिए भी दे देतीं थी मैं।

  एक दिन अचानक अमन ने बताया कि अपने दोस्त के पास मुंबई जाना है उसे, मेरा भी मन था अमन के साथ जाने का पर अमन अकेले जाना चाहते थे। दस दिन की ही बात है… मैंने खुद को समझाया। अमन चले गए , मैं भी कुछ दिनोे के लिए मायके चली गई, अपनी नौकरी में व्यस्त हो गई। दस दिन बाद अमन वापिस आए , सब खुश थे ,सबके लिए गिफ्ट्स लेकर आए थे अमन।

कमरे में जाकर ,अमन का सूटकेस खाली करने लगी तो उसमें से कुछ बिल निकले, सोचा फेंकने से पहले देख लूँ कि काम के तो नहीं हैं ? बिल खोलकर देखे तो आस्ट्रेलिया से की गई शाॅपिंग के बिल थे, मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि अमन मुझसे झूठ बोलकर आॅस्ट्रेलिया जा सकते हैं। मैं बहुत रोई, मेरे आँसू रोके नही रुक रहे थे। अमन कमरे में आए तो मैंने उनकी ओर देखा भी नहीं, उन्हें अजीब लगा। मेरी उंगलियों को अपने हाथों में कसते हुए बोले – नाराज़ हो ?

कहाँ गए थे आप ?

अमन चुप थे , मुझसे कुछ छिपाते नहीं थे फिर भी झूठ बोला ? मेरा दिल अंदर तक टूट चुका था।

कुछ देर की खामोशी के बाद अमन ने जवाब दिया – आॅस्ट्रेलिया।

झूठ बोलकर …………

सच बोलता तो क्या तुम जाने देतीं ? मुझे अपने दोस्तों के साथ जाना था, घर परिवार से अलग मेरा अपना भी वजूद है।

और मेरा….? …………मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं मिला मुझे।

 मैं सारी रात रोती रही, सुबह स्कूल भी नहीं गई। मीरा मायके आई हुई थी रहने के लिए , मीरा के घर जाकर उसके सामने जी भरकर रोई और रोते- रोते सारी बात उसे बताई।

मीरा ने मुझे बहुत समझाया कि तुमसे अलग, अमन की अपनी पर्सनल ज़िंदगी भी है। तुम्हारे साथ, परिवार के साथ जाने पर एक बंधन , एक रिस्पोंसिबिलिटी निभानी पड़ती है उसे । जीने दो उसे उसकी ज़िंदगी के कुछ पल …जो सिर्फ उसके अपने लिए हों।

 वास्तव में मैं दुखी इस बात से नहीं थी कि अमन बिना बताए, अकेले आॅस्ट्रेलिया चले गए, मुझे दुख इस बात का था कि मुझे ऐसा करने का अधिकार नहीं था क्योंकि मैं बहु थी उस घर की। मैंने महसूस किया कि अब मुझे राहत तभी मिलेगी जब अपनी ज़िंदगी के कुछ पल मैं भी

सिर्फ अपने लिए जी लूँगी , मम्मी – पापा और अमन को ये अहसास दिलवा दूँगी कि मेरी भी अपनी ज़िंदगी है, वज़ूद है, मुझे भी पर्सनल स्पेस चाहिए।  

मैंने बहुत सोचा पर…. दिल को राहत पहुँचाए, ऐसा जवाब नहीं मिला मुझे। खुद को समझाया कि शादी बंधन नहीं है, शर्तों पर रिश्ते नहीं टिकते पर मैं चाहती थी कि पलड़ा दोनों का बराबर हो। जिन कामों को करने की इज़ाज़त अमन को आसानी से मिल जाती है , उन्हीं के लिए मुझे इतनी कोशिशें क्यों करनी पड़ती हैं ?

मैं संतुष्टि चाहती थी , बराबर का अधिकार चाहती थी । अमन को बिना बताए, मैंने पाँच दिन के हम्पी ट्रिप की बुकिंग करवाई । पापा-मम्मी को दुख नहीं पहुँचाना चाहती थी इसलिए उनसे कहा कि वर्कशाॅप के लिए बंगलौर जाना है। अमन से मैंने कुछ नहीं पूछा, कुछ नहीं बताया, नाराज़ जो थी उनसे। रात को अमन ने ही बात शुरु की – कल वर्कशाॅप के लिए बंगलौर जा रही हो , तुमने मुझे बताया नहीं।

पता चल गया ना । झूठ बोलकर नहीं जाऊँगी…..मैं बंगलौर नहीं, ट्रिप पर हम्पी जा रही हूँ……पाँच दिन के लिए।

थोड़ी देर कमरे में सन्नाटा रहा….अमन को अच्छा नहीं लगा इसलिए चुप थे और उनकी इस चुप्पी से मुझे सुकुन मिला। यही तो मैं चाहती थी कि उन्हें ये अहसास हो कि जीवन साथी बिना बताए या झूठ बोलकर कोई काम करे तो दिल कितना रोता है।

मैंने सन्नाटा तोड़ा – मम्मी- पापा का दिल नहीं दुखाना चाहती थी इसलिए उनसे झूठ कहा।

आप कहें तो उन्हें सच बता दूँ।

नहीं नहीं , रहने दो।……… सुबह कितने बजे की फ्लाइट है ?  कैसे जाओगी एयरपोर्ट ?

आठ बजे की फ्लाइट है, कैब से चली जाऊँगी ।

मैं छोड़ आऊँगा।……….. अब सो जाओ ,सुबह जल्दी उठना होगा।

सुबह आँख खुलीं तो देखा….अमन मेरा सामान इकट्ठा करके एक जगह रख रहे थे। खुदबखुद मेरे ओठों पर एक मीठी-सी मुस्कान आ गई।

पहली बार अकेली जा रही थी, शिबानी सिर्फ महिलाओं के लिए ही ट्रिप्स आॅर्गेनाइज़ करती है इसलिए उसकी कंपनी से ही बुकिंग की थी। ट्रिप पर हम सात महिलाएँ थीं, सात महिलाओं के साथ पाँच दिन, ना घर की चिंता, ना नौकरी की……उस दिन महसूस हुआ कि पर्सनल स्पेस तो सभी को चाहिए, मुझे भी चाहिए था।

ट्रिप से वापिस आई बिल्कुल फ्रैश रीमा , एक नई रीमा, एक बदली हुई सोच के साथ।

अमन भी समझ चुके थे कि मेरी भी मेरी भी अपनी कुछ ख्वाहिशें हैं  और हम दोनों को ही अपना-अपना अलग स्पेस चाहिए। हमने एक दूसरे से वादा किया कि शादी का ये अटूट बंधन, एक दूसरे से बंधकर लेकिन एक दूसरे को पर्सनल स्पेस देकर निभाएँगे।

सिर्फ और सिर्फ पर्सनल स्पेस के कारण ही आज, शादी के दस साल बाद भी हमारे बीच वही फ्रैशनैस, नयेपन का वही अहसास है  ,जो दस साल पहले था।

 

 

 

 

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