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LaguKatha Sangreh Navadha- Class 8

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Navadha

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  You May Like – विडियो – क़हानी पतंग              

                                                       खोखली जड़ें

     आम और अमरूद के दो वृक्ष पास-पास खड़े थे, दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी । अमरूद का छोटा-सा वृक्ष नम्र, उदार, मधुर वचनों से परिपूर्ण, दूसरी तरफ आम का विशाल वृक्ष मन ही मन अपने विशाल होने का अहंकार लिए जीवन व्यतीत कर रहा था ।

पर ना जाने क्यों ,बीतते समय के साथ धीरे-धीरे आम का वृक्ष सूखने लगा, कमज़ोर हो गया । एक दिन तेज़ आँधी आई और आम का पेड़ जड़ से उखड़ कर गिर गया ।

आम का पेड़ धरा पर क्रोधित होकर बोला,‘‘ माँ आज तेरे ही कारण मेरी यह दशा हुई है, भूख-प्यास से तड़पा-तड़पाकर तुमने मेरा ये हाल कर दिया, तुमने मुझे कभी ठीक से खाना-पानी दिया ही नहीं । कितनी निर्दयी हो तुम, माँ ।अब मुझे इस तरह तड़पते देखकर तुम्हारे दिल को ठंडक मिल गई होगी ।’’

धरा की आँखों से आँसू झरने लगे, दुखी होकर बोली,‘‘ नादान बालक, अपने बच्चों को तड़पता देखकर भला माँ कभी खुश हो सकती है , मैं तो सभी को समान रूप से अन्न-जल और अन्य सभी पौष्टिक तत्व प्रदान करती हूँ । जैसे तुम फलों का उपयोग स्वयं नहीं करते , दूसरों को बाँट देते हो , वैसे ही मैं भी अपने पौष्टिक तत्व स्वयं के लिए एकत्रित नहीं करती, अपनी संतान में समान रूप से बाँट देती हूँ ।

वत्स तुम्हारी स्वयं की जड़े ही खोखली हो गईं थीं तो मैं क्या कर सकती हूँ ।’’

                                                              अस्तित्व

   वृद्ध के चार बेटे थे, छोटा बेटा अंधा था और बाकि तीन नास्तिक थे । वृद्ध का ईश्वर में पूर्ण विश्वास था, दिन रात पूज़ा पाठ में लगा रहता । छोटे बेटे के अंधेपन को दूर करने में तो असमर्थ था ही बाकि तीनों को आस्तिक बनाना चाहता था परंतु उसमें भी असमर्थ था ।

एक दिन घर के आँगन में बैठा हुक्का पी रहा था कि उसने देखा चारों भाईयों में बहस छिड़ी हुई है, तीनों भाई मिलकर अपने अंधे भाई को बता रहे थे कि प्रकाश फैलने पर अंधकार कैसे दूर हो जाता है पर अंधा भाई मान ही नहीं रहा था, वह कह रहा था,‘‘ अगर प्रकाश है तो मेरे हाथों में दे दो । मैं तो देख नहीं सकता , छू कर ही किसी के अस्तित्व को स्वीकार करता हूँ । प्रकाश को पकड़ूँगा , हाथ से छुऊँगा तो उसका अस्तित्व स्वीकार करूँगा ।’’

वृद्ध अंधे बेटे के दुख से बहुत दुखी हुआ, पैसे एकत्रित किए और उसे अस्पताल ले गया ऑपरेशन हुआ और सौभाग्य से अंधे बेटे की आँखों की रोशनी लौट आई । उसने अपनी आँखों से प्रकाश देखा और उसका अस्तित्व स्वीकार किया ।

वृद्ध ने अपने नास्तिक बेटों को छोटे बेटे का उदाहरण देते हुए समझाया,‘‘ ईश्वर का अस्तित्व भी प्रकाश को पकड़ने के समान है, जाना नहीं जा सकता । उसके लिए विवेक के चक्षु खोलने पड़ते हैं, आत्मानुभूति की चिकित्सा का सहारा लेना पड़ता है ।’’

                                                                 जीवन

   ‘ जीवन क्या है ?’ इस बात पर बादल, चंद्रमा, समुद्र, पवन और सरोवर के बीच     चर्चा होने लगी । सभी ने अपना अपना पक्ष रखा । जिसने जीवन को जिस रूप में पाया, वैसी ही मान्यता व्यक्त की ।

बादल बोला ,‘‘ जीवन एक घुटन है । ’’

‘‘ जीवन आँख मिचैली है ।’’ चंद्रमा ने कहा ।

‘‘ जीवन मात्र दिशाहीन, निरुद्देश्य भटकन है।’’पवन ने अपना मत व्यक्त किया ।

सागर बोला,‘‘ जीवन विशालता है ।’’

बूँद ने अपना मत व्यक्त किया,‘‘ जीवन पतन के अतिरिक्त कुछ नहीं ।’’

अंकुर बोला ,‘‘ अभिनव अवतरण है जीवन ।’’

सरोवर ने कहा,‘‘ मर्यादा का बंधन है ।’’

नदी बोली, ‘‘ जीवन सतत् प्रवाह है ।’’

      बात बढ़ती गई, विवाद का कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा था । मृत्यु दूर खड़ी सबको अपना मत व्यक्त करते , विवाद मे उलझते देख रही थी । धीमें से मुस्कुरा कर बोली ,‘‘ तुम सब मिलकर जीवन के बारे में जितना जानते हो, उससे कहीं अधिक जानती हूँ ,मैं अपने उस जलपान के बारे में ।’’

                                                             मैं और तू

      बिहारी जी स्वयं को शिव का सबसे बड़ा भक्त मानते थे । एक दिन गए शिव के मंदिर , द्वार खटखटाया, प्रवेश पाने के लिए । भगवान शिव दरवाज़े पर आए और पूछा, ‘‘ तुम कौन हो ?’’

‘‘ मैं हूँ , आपका भक्त ’’ – बिहारी जी ने उत्तर दिया ।

‘‘ मेरे मंदिर में दो के लायक स्थान नहीं है , यहाॅं ‘मैं’ और ‘तू’ दो नहीं रह सकते। ’’ शिव जी ने कपाट बंद करते हुए कहा ।

कुछ दिन बाद बिहारी जी फिर पहुँच गए मंदिर, द्वार खटखटाया । शिवजी ने वही प्रश्न किया, ‘‘ कौन है ’’ बिहारी जी ने कहा, ‘‘तू’’

शिव जी ने कपाट खोल दिए, बिहारी जी को गले लगाया और बोले , ‘‘ प्रेम तो अद्वैत है, जहाँ एकाकार होकर ही रहा जा सकता है ।’’

  You May Like – मेरे छह लघुकथा संग्रह – मधुकलश, उड़ान, इंद्रधनुष, मंजुषा, संचयन,नवधा                                               

                                                  सत्य और मिथ्या    

             अमन और अथर्व दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी । दोनो के घर भी पास पास ही थे औार दोनों के घर के ठीक सामने दो वृक्ष थे । अमन के घर के सामने वाले वृक्ष पर सुंदर फूल खिले थे अथर्व के घर के सामने वाला वृक्ष सूखकर ठूँठ बन चुका था । दोनों मित्रों के बीच अक्सर विवाद हो जाता , अमन कहता संसार मिथ्या है और अथर्व कहता संसार सत्य

है ।

हस कभी-कभी विवाद का रूप भी ले लेती । दिन बीते , महीने बीते ,सूखे वृक्ष से एक हरी डाल फूट पड़ी और हरा वृक्ष अचानक सूखकर ठूँठ बन गया । परंतु अमन और अथर्व का झगड़ा अब भी जारी था । स्थिति परिवर्तित हो चुकी थी, अब अमन संसार को सत्य कह रहा था और अथर्व मिथ्या ।

वृद्ध तिवारी जी वहाँ से गुज़र रहे थे , झगड़ा होते देखा तो दोनों को समझाया , ‘‘ झगड़ा करना व्यर्थ है क्योंकि संसार ना तो सर्वथा सत्य है और ना बिल्कुल मिथ्या । संसार परिवर्तनशील है इसलिए आपस में झगड़ने से अच्छा है कि जो सामने है उसे सुंदर और सफल बनाने का प्रयास करो । जो अपने जीवन को परिवर्तनों के अनुरूप ढाल लेते हैं , वास्तच में वही इस संसार का सही अर्थ जानते हैं ।’’

                                                   

                                                              पश्चाताप

      ईश्वर भक्त दामोदर जी शहर से लौट रहे थे , सोचा बीवी-बच्चों के लिए कुछ ले लें । पत्नी के लिए जयपुरी चुनरी, बच्चों के लिए चिप्स, चाॅकलेट ली और चल दिए । रास्ता घने जंगलों से होकर गुजरता था, अपने ख्यालों में डूबे चले जा रहे थे कि अचानक वर्षा की झड़ी लग गई ।

पत्नी की जयपुरी चुनरी कच्चे रंग की थी , भीगते ही सारा रंग बह निकला, चाॅकलेट, चिप्स भी पानी पड़ते ही गलकर सब खराब हो गए । दामोदर जी बहुत निराश थे , क्रोधित होकर ईश्वर को बुरा भला कहने लगे ।

      अभी थोड़ी दूर ही चले होंगे कि डाकुओं का एक दल आता दिखाई दिया । उन्होंने दूर से ही बंदूक तानकर ,दामोदर जी पर निशाना लगाया, दामोदर जी ईश्वर का नाम जपने लगे ।

डाकुओं के सभी कारतूस भीगकर सील चुके थे इसलिए गोली नहीं चल पाई और दामोदर जी ने भागकर अपनी जान बचाई । ईश्वर को धन्यवाद देते हुए क्षमा माँगने लगे और अपने अज्ञान पर पश्चाताप करने लगे ।

                                                                  वरदान

                      घड़े को अपने स्वास्थ्य और सौंदर्य पर बहुत अभिमान था, अपने रंग रूप और स्वास्थ्य को देखकर बहुत इतराने लगा था I  एक दिन हल्की-सी चोट लगी और घड़ा टूटकर  टुकड़े -टुकड़े होकर जमीन पर बिखर गया, उसका सारा अभिमान चूर -चूर हो गया I

        अपनी इस स्थिति के लिए वह ईश्वर को दोष देता हुआ कहने लगा, ‘हे ईश्वर ! तुम कितने निर्दयी हो तुम से मेरा स्वास्थ्य, मेरा सौंदर्य और मेरी प्रसन्नता देखी नहीं गई I तुम हमेशा ही हँसते खेलते लोगों को यूँ ही नष्ट कर दिया करते हो, ऐसा क्यों करते हो भगवन ?

                  तभी धरती माँ ने उस टूटे हुए घड़े के टुकड़ों को अपने आंचल में समेटा और समझाते हुए बोली, ‘वत्स ऐसा मत कहो, ईश्वर जो भी करता है अच्छा ही करता है I  तुम्हे नहीं पता टुकड़े-टुकड़े होकर तुम किस अनंतता में लीन होने का वरदान पा रहे हो I

                                                                  भविष्य

     मगध राज्य का नियम था कि एक राजा वहाँ केवल बारह वर्ष तक ही राज्य कर सकता था और बारह वर्ष तक राज्य करने के बाद उसे जंगल में जाकर रहना पड़ता था I राजा रणजीत सिंह गद्दी पर बैठे लेकिन वह इस नियम से बहुत चिंतित थे I धीरे -धीरे ग्यारह वर्ष बीत गए, एक वर्ष के बाद राज्य के नियमानुसार उन्हें भी वन में जाकर रहना था I

तभी उनके दरबार में एक महात्मा आए, राजा की चिंता सुनकर उन्होंने राजा को परामर्श दिया कि इस राज्य की अधिक से अधिक धन- संपत्ति अभी से वन में भेज दो, वहाँ जाने पर उसका उपयोग करना और आनंदपूर्वक अपना जीवन जंगल में व्यतीत करना , राजा ने ऐसा ही किया और बारह वर्ष पूरे होने पर नियमानुसार राज्य छोड़कर वन में जाकर ख़ुशी -ख़ुशी, आनंदपूर्वक  जीवन व्यतीत करने लगे I

भविष्य को ध्यान में रखकर विचारपूर्वक जीने वाले लोगों का ही जीवन सार्थक होता है 

         

                                                         एकता

              भवन निर्माण का कार्य चल रहा था, पास ही ईंटों का ढेर लगा था I ईंटें  आपस में बातें कर रही थी कि इन गगनचुंबी इमारतों का निर्माण हमारे कारण ही संभव है I अगर शिलान्यास ही न हो तो भवन निर्माण तो दूर, एक दीवार भी खड़ी न हो पाए I

सीमेंट ने ईंटों की गर्व भरी बातें सुनी तो उससे रहा नहीं गया I पूरे गर्व के साथ सीमेंट ने मुस्कुराकर कहा, ‘इतना झूठ मत बोलो, यह तो तुम भी जानती हो कि अगर मैं तुम ईंटों को ना जोड़ूँ तो कोई भी ठोकर मारकर तुम्हें गिरा सकता है , मेरे बिना तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं I मैं ना रहूँ, तो भवन निर्माण का काम रुक जाएगा इसलिए मैं ज्यादा महत्वपूर्ण हूँ I

लकड़ी के बने दरवाज़े और खिड़कियों ने भी प्रतिवाद किया, भाई यह तो सभी जानते हैं कि ईंटों को जोड़- जोड़कर तुम दीवारें खड़ी करते हो पर यदि उस भवन में खिड़की दरवाजे न हो तो रहने को भी कोई तैयार नहीं होगा I जहाँ खिड़की दरवाज़े ही न हों,ऐसे असुरक्षित भवन में कौन रहना चाहेगा ? भवन की पूर्णता तो हम पर ही निर्भर करती है I

         मकान बनाने वाला शिल्पी चुपचाप खड़ा सुन रहा था बोला आप सभी का कितना भी महत्व क्यों न हो पर सबको एक सूत्र में पिरोने वाला तो मैं ही हूँ ,यदि मेरा हाथ न लगे तो ईंटें, सीमेंट, खिड़कियाँ और दरवाज़े अपने -अपने स्थान पर ही पड़े रहेंगे,

मेरे बिना आप में से किसी का भी कोई अस्तित्व नहीं और फिर आधे-अधूरे भवन ने हँसकर कहा कि एकता के अभाव में व्यक्तिगत अस्तित्व का कोई महत्व नहीं है, झूठे अभिमान को छोड़ो और दूसरों के महत्व को भी समझ I

                                                     आत्म संतुष्टि

       सार्थक और सक्षम बहुत अच्छे मित्र थे। सार्थक आस्तिक था, दोनों वक्त मंदिर जाता, पूजा- पाठ करता I  सक्षम नास्तिक था पर बहुत मेहनती था। दोनों एक ही ऑफिस में काम करते, साथ-साथ ऑफिस जाते और साथ ही साथ ऑफिस से वापस आते ।सोसाइटी में उनकी दोस्ती की मिसाल दी जाती थी I

    सार्थक ऑफिस जाने से पहले मंदिर जाता और हाथ जोड़कर ईश्वर से बहुत कुछ माँगता, ‘‘हे ईश्वर मुझे एक अच्छा सा घर दें , एक कार दें, धन सम्पत्ति दें, अच्छा परिवार दें ।”

शाम को ऑफिस से वापस आकर फिर से मंदिर जाता और ईश्वर से वही सब माँगता I सक्षम न सुबह मंदिर जाता और ना ही शाम को।वह मन ही मन ईश्वर को याद करता, ऑफिस में सारा दिन मेहनत करता और रात को थक कर सो जाता।

     सक्षम की उन्नति होती गई और सार्थक जहाँ था, वहीं रह गया I सक्षम की उन्नति देखकर सार्थक को बहुत ईर्ष्या हुई और उसने भगवान से शिकायत की प्रभु मैंने दिन-रात आपकी पूजा की और आपने उस नास्तिक सक्षम को सब कुछ दे दिया, क्यों ?

 भगवान मुस्कुराकर बोले, ‘’ माँग -माँगकर परेशान करने की बजाए तुम भी मेहनत करते तो क्या बुरा था, अपने पूजा- पाठ के बदले कुछ न कुछ माँगते रहने पर, तुम्हारे पूजा-पाठ का कोई महत्व नहीं रह जाता I वत्स मेरा स्नेही आशीर्वाद उसी के साथ है जो आत्मसंतुष्ट हैं I

सार्थक को समझ में आ चुका था कि आत्मसंतुष्टि ही सबसे बड़ा सुख है, जिसके आगे धन वैभव का कोई मूल्य नहीं है I

                                                             

                                                      

                              

  

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