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Explanation ,Atamtran Class 10 | Hindi Chapter 9

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  आत्मत्राण

  आत्मत्राण

                                                           आत्मत्राण

                                                          

  आत्मत्राण

 PPT-   व्याख्या आत्मत्राण

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विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं
केवल इतना हो (करुणामय)

कभी न विपदा में पाऊँ भय।
दुःख-ताप से व्यथित चित्त को न दो सांत्वना नहीं सही

पर इतना होवे (करुणामय)
दुख को मैं कर सकूँ सदा जय।
कोई कहीं सहायक न मिले
तो अपना बल पौरुष न हिले;
हानि उठानी पड़े जगत् में लाभ अगर वंचना रही
तो भी मन में ना मानूँ क्षय।।

शब्दार्थ –  

विपदा – विपत्ति ,मुसीबत
करुणामय – दूसरों पर दया करने वाला

भय- डर
दुःख-ताप – कष्ट की पीड़ा

व्यथित – दुःखी
चित्त – मन
सांत्वना – दिलासा

जय करना – जीत लेना
सहायक – मददगार
पौरुष – बहादुरी, वीरता

वंचना – धोखा
क्षय – हानि,नाश

व्याख्या – इन पंक्तियों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ईश्वर से अपने दुःख-दर्द कम न करने को कह रहे है वे उन दुःख-दर्द को झेलने की शक्ति माँग रहे हैं।  कवि ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे प्रभु ! दुःख और कष्टों से मुझे बचा कर रखो, मैं ऐसा  नहीं चाहता बल्कि मैं तो सिर्फ यह चाहता हूँ कि तुम मुझ पर इतनी दया बनाए रखना कि मुझे विपत्तियों से डर न लगे अर्थात् मुझे उन दुःख तकलीफों को झेलने की शक्ति दो।

मेरे दुःखी मन को आप हौंसला मत दो पर मुझमें इतना आत्मविश्वास भर दो कि मैं हर कष्ट पर जीत हासिल कर सकूँ। कष्टों में कहीं कोई सहायता करने वाला भी ना मिले तो कोई बात नहीं परन्तु वैसी स्थिति में मेरा बल-पराक्रम कम नहीं होना चाहिए। मुझे अगर इस संसार में बार-बार हानि भी उठानी पड़े, लाभ से हमेशा वंचित ही रहना पड़े और सभी लोग मुझे धोखा दे जाएँ तो भी मैं निराश न होऊँ। मेरे मन की शक्ति का कभी नाश न हो अर्थात मेरा मन हर परिस्थिति में आत्मविश्वास से भरा रहना चाहिए।

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मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं
बस इतना होवे (करुणायम)
तरने की हो शक्ति अनामय।
मेरा भार अगर लघु करके न दो सांत्वना नहीं सही।
केवल इतना रखना अनुनय-
वहन कर सकूँ इसको निर्भय।
नत शिर होकर सुख के दिन में
तव मुख पहचानूँ छिन-छिन में।
दुःख-रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही
उस दिन ऐसा हो करुणामय,
तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय।।

शब्दार्थ –  

त्राण – भय निवारण ,बचाव
अनुदिन  – प्रतिदिन

होवे – हो
तरने – पार करना

अनामय – रोग रहित
लघु – कम
सांत्वना – हौसला ,तसली देना
अनुनय- – प्रार्थना,विनय  
वहन करना  – सामना करना
निर्भय – बिना डर के
नत शिर – सिर झुका कर

तव मुख – आपका चेहरा

छिन -छिन – हर पल, हर समय
दुःख-रात्रि  – दुःख से भरी रात
निखिल – सम्पूर्ण

मही – धरती
संशय – संदेह

व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि किसी भी  परिस्थिति में मेरे मन में आपके प्रति संदेह न हो।  कवि ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे प्रभु ! मेरी आपसे यह प्रार्थना नहीं है कि आप मुझे भय, संकट से दूर रखें। आपसे केवल इतनी प्रार्थना है कि मुझे इतना धैर्य व साहस दें कि मैं अपनी शक्ति के सहारे इस संसार रूपी सागर को पार  कर  सकूँ। मेरे कष्टों के भार को भले ही कम ना करो और मुझे हौसला न दें ।

आपसे केवल इतनी प्रार्थना है कि मुझे इतनी शक्ति दें कि मैं अपने बल पर निर्भय होकर सभी दुखों, विपदाओं का सामना कर पाऊँ। सुख के दिनों में भी मैं आपको एक क्षण के लिए भी ना भूलूँ अर्थात हर क्षण आपको याद करता रहूँ । दुःख से भरी रात में भी अगर कोई मेरी मदद न करे तो भी मेरे मन में आपके प्रति कोई संदेह न हो इतनी मुझे शक्ति देना।

यह प्रार्थना  अन्य प्रार्थनाओं से पूरी तरह है। यह प्रार्थना गीत अन्य प्रार्थना गीतों से भिन्न है क्योंकि अन्य गीतों में ईश्वर से दुःख-दर्द ,कष्टों को दूर करने और सुख-शांति की कामना की प्रार्थना की जाती है। जनसामान्य प्रार्थना गीतों में अपने संकट कष्ट दुख मुसीबत आदि को दूर करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है लेकिन कवि ने इनसे अलग अपनी प्रार्थना में ईश्वर से साहस, बल-पौरुष माँगा है ताकि वह स्वयं अपने बल पर दुखों का सामना कर सके और उन पर विजय पा सकें ।

इस गीत में ईश्वर से दुःख-दर्द और कष्टों को दूर करने के लिए नहीं बल्कि उन दुःख-दर्द और कष्टों को सहने की और झेलने की शक्ति देने के लिए कहा है। कवि सुख में भी प्रभु को ना भूलने तथा उन पर सदैव विश्वास बनाए रखने की प्रार्थना करता है इससे कवि की प्रार्थना में दैन्य भाव न होकर विनय भाव है जिससे यह प्रार्थना गीत अन्य प्रार्थना गीतों से अलग लगता है।

‘विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं’- कवि इस पंक्ति के द्वारा कहना चाहता है कि मेरे जीवन में जो दुख और कष्ट आने वाले हैं ,आप उनसे मुझे मत बचाओ ।मैं ये नहीं कहता कि मुझ पर कोई विपदा या दुःख न आए । मैं केवल इतना चाहता हूँ कि मैं स्वयं अपने आत्मबल के सहारे साहसपूर्वक उन विपदाओं और कष्टों का सामना कर पाऊँ। इन दुखों से घबराकर हार न मान बैठूँ, मैं साहसपूर्वक इनसे संघर्ष करना चाहता हूँ।

                         कवि अपने आराध्य करुणामय ईश्वर से प्रार्थना कर रहा है कि हे प्रभु तुम भले ही मुझे दुख से मत उबारो, मेरे कष्ट दूर मत करो परन्तु उन दुखों, कष्टों को सहने की शक्ति प्रदान कीजिए। कवि नहीं चाहता कि ईश्वर उसके दुखों को हरे या  कोई भी उसकी सहायता करें। कवि केवल आत्म बल और पुरुषार्थ माँग रहा है। कवि प्रार्थना कर रहा है कि दुःख हो या ख़ुशी वह ईश्वर को कभी न भूले और उसके मन में कभी ईश्वर के प्रति संदेह न हो ।

कवि सहायक के न मिलने पर प्रार्थना करता है कि उसके पुरुषार्थ में कोई कमी न आए। मानव जीवन में सुख-दुख आते रहते हैं, सुख के पल मनुष्य आसानी से बिता देता है परंतु दुख में ईश्वर का स्मरण करते हुए सहायता माँगता है। कवि जीवन की दुख रूपी रात्रि में कोई सहायक न मिलने पर भी ,ईश्वर के प्रति संदेह नहीं करना चाहता। वह प्रभु से प्रार्थना करता है कि दुख की घड़ी में उसका बल-पौरुष बना रहे, जिससे वह दुखों से संघर्ष करते हुए उन पर विजय प्राप्त कर सके।

अंत में कवि अनुनय करता है कि चाहे सब लोग उसे धोखा दें जाएँ , उसके बुरे समय में कोई उसका साथ ना दे और दुःख दर्द उसे घेर लें ,फिर भी उसका विश्वास ईश्वर पर कभी कम न हो। ईश्वर के प्रति उसकी आस्था कभी कम नहीं होगी। वह दुख के समय में भी ईश्वर पर अपनी आस्था बनाए रखना चाहता है वह किसी भी स्थिति में ना अपने प्रभु पर विश्वास कम होने देना चाहता है और ना ही उनकी शक्तियां के प्रति शंकाग्रस्त होना चाहता है।

अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना के अतिरिक्त हम परिश्रम व संघर्ष करते है । इच्छाओं की पूर्ति के लिए उपाय सोचते हैं, योजनाबद्ध कदम उठाते हैं। यदि एक प्रयास में इच्छा पूर्ति न हो तो निराश नहीं होते। भाग्य के सहारे बैठने की बजाय दोबारा प्रयास करते हैं। साहस और मनोबल बनाए रखने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। हम इन प्रयासों के जरिये, धैर्य पूर्वक अपनी इच्छाओं को पूरा करने का प्रयास करते हैं।

‘आत्मत्राण ‘ शीर्षक पूर्णतः सार्थक है। ‘आत्मत्राण’ – आत्मा अर्थात स्वयं या खुद, त्राण का अर्थ है रक्षा करना । आत्मत्राण’ अर्थात स्वयं अपनी रक्षा करना। कवि दुखों और मुसीबतों से बचने या उन्हें दूर करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना नहीं करता , न ही इस कार्य के लिए उन्हें याद करता है ।

वह प्रभु से आत्मबल, साहस ,पौरूष माँगता है जिनकी सहायता से वह स्वयं दुख और मुसीबतों का सामना कर सके। कवि ईश्वर से यह प्रार्थना नहीं कर रहा है कि उसे दुःख ना मिले बल्कि वह मिले हुए दुःखों को सहने और झेलने की शक्ति ईश्वर से माँग रहा है। अपनी रक्षा खुद करने का भाव समेटे हुए है यह शीर्षक पूरी तरह से सार्थक है।

 

 

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