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Mnushyata ,Explanation, Vyakhya Class 10 Hindi Course B

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कविता -मनुष्यता

कविता -मनुष्यता

                            

कविता -मनुष्यता
                                                                      

PPT -कविता – मनुष्यता 

You May Like –ऑडीओ – मनुष्यता कविता की व्याख्या

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मारा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु- प्रवृति  है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

शब्दार्थ  –

मर्त्य – मृत्यु

समृत्यु – अच्छे कार्य करते हुए मिलने वाली मृत्यु

यों – ईज़

जिया – जीवित

आपके लिए – अपने लिए

पशु प्रवृति – पशुओं का स्वभाव

आप आप – खुद, अपने आप

व्याख्या –  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि मनुष्य जीवन की महत्ता और उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि मनुष्य मरणशील प्राणी है, उसका जीवन नश्वर है इसलिए मनुष्य को मृत्यु से भयभीत नहीं होना चाहिए। कवि कहते है कि तुम जब तक जीओ, निर्भय होकर जीयो और अच्छे काम करो। अपने मन से मृत्यु का भय निकाल दो ,जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है।

इस संसार में तुम ऐसे कार्य करो, जो तुम्हें महान बना दे ताकि तुम्हारे मरने के बाद भी संसार के लोग तुम्हें याद करें। यदि तुम्हें इस तरह की सुमृत्यु नहीं मिली अर्थात अच्छी मृत्यु नहीं मिली तो तुम्हारा जीना और मरना दोनों ही व्यर्थ है। केवल अपने लिए ही जीना पशुओं का स्वभाव है, यह पशुओं की आदत है कि अन्य पशुओं की परवाह किए बिना अकेले ही अकेले चलते रहें। वास्तव में सच्चा मनुष्य वही है जो अपने अलावा दूसरों की भलाई करता हुआ जिए।

 

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

शब्दार्थ  –

उदार – दयालु, खुले दिलवाला

कथा – क़हानी

सरस्वती – ज्ञान की देवी

बखानती – गुण गान करना

धरा – धरती

कृतार्थभाव – धन्य होने का भाव

कृतघ्न – ऋणी , आभारी

सजीव – जीवित
कूजती – करना

अखण्ड – जिसके टुकड़े न किए जा सकें

असीम – पूरा, जिसकी कोई सीमा न हो

व्याख्या –  प्रस्तुत पंक्तियों में एक कवि ने एकता, उदारता एवं आत्मीयता के भाव पर प्रकाश डाला है। कवि कहते हैं कि जो मनुष्य इस संसार में आकर अपनेपन और भाईचारे का भाव रखता है, सरस्वती भी उसी उदार व्यक्ति का गुणगान करती है और धरती भी ऐसे मनुष्यों को पैदा कर स्वयं को कृतज्ञ एवं धन्य मानती है। ईज़ ही उदार लोगों की कीर्ति धरती पर गूंजती है, संसार के लोग उदार मनुष्य के यश का गुणगान करते हैं और उन्हें ही पूजते हैं।

जो मनुष्य विश्व के प्राणियों को एकसमान समझता है और अपना जीवन दूसरों के कल्याण में समर्पित कर देता है तथा दूसरों के साथ अपनेपन का भाव बनाए रखता है उसी को मनुष्य कहलाने का अधिकार है। विश्व बंधुत्व की भावना रखने वाला व्यक्ति सदैव प्रशंसनीय एवं पूजनीय होता है। जो मनुष्य विश्व में अखंडता का संचार करता है उसकी कीर्ति सर्वत्र फैलती है। वास्तव में जो मनुष्य दूसरों के लिए जिए और मरे वही सच्चा मानव है।

क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के  लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के  लिए मरे।।

शब्दार्थ   –

क्षुधार्त – भूख से परेशान

रांतिदेव – एक प्रसिद्ध राजा
करस्थ – हाथ की
परार्थ – दूसरों की भलाई के लिए
अस्थिजाल – हड्डियों का ढाँचा
उशीनर क्षितीश – उशीनर देश के राजा शिबि
सहर्ष – ख़ुशी से

स्वमांस – अपने शरीर का मांस

अनित्य – नश्वर

देह – काया, शरीर

अनादि जीव – अमर प्राणी
शरीर चर्म – शरीर का कवच

व्याख्या –  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने पौराणिक कथाओं के दानवीर राजाओं का वर्णन किया है। भारत का इतिहास दानवीरों से भरा पड़ा है उन्होंने मानवता की भलाई के लिए धन तो धन ,तन भी अर्पण कर दिया। ऐसे दानवीरों का उल्लेख करते हुए कभी कहता है कि परम दानी राजा रंतिदेव ने भूख से अत्यधिक व्याकुल होते हुए भी, अपने हाथ के भोजन की थाली घर आए भिक्षु को दे दी थी। दधीचि का त्याग और दान विश्व प्रसिद्ध हैं जिन्होंने देवताओं को विजयी बनाने के लिए अपनी हड्डियाँ दान दे दी।

राजा उशीनर ने एक कबूतर की जान बचाने के लिए अपने शरीर के मांस का दान दे दिया। इसी तरह कर्ण ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए अपना रक्षा कवच और कुंडल दान में दे दिए। कवि का मानना है कि यह शरीर नश्वर व क्षणभंगुर है और आत्मा अमर है तो मनुष्य मृत्यु से क्यों डरें अर्थात मनुष्य को शरीर नष्ट होने का भय नहीं होना चाहिए। सच्चा मनुष्य वही होता है जो मानव कल्याण के लिए जीता और मरता है।

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सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;

              वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धभाव बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा ?
अहा ! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

 

शब्दार्थ  –

सहानुभूति – दया,करुणा

महाविभूति – सब से बड़ी सम्पति

वशीकृता – वश में करने वाला

मही – ईश्वर

विरुद्धवाद – खिलाफ होना

दया प्रवाह –दयालुतापूर्णविनीत – नम्रता के कारण झुका हुआ

लोकवर्ग – लोगों का समूह

परोपकार – दूसरों की भलाई करना

व्याख्या –  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने सहानुभूति करुणा और परोपकार की भावना को मनुष्य के लिए सर्वोपरि माना है। कवि कहता है कि दूसरों के सुख दुख के प्रति संवेदनशील होना उनके दुख से दुखी होना और सुख में सुखी होना मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है, जो मनुष्य को महान बनाता है। इसी कारण सारी दुनिया मनुष्य के वश में हो जाती है। उदार व्यक्ति सदैव पूजनीय होते हैं और धरती को भी वश में कर लेते हैं।

महात्मा बुद्ध ने जब अपने ज्ञानोपदेश से समाज की बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया तो लोगों ने उनका खूब विरोध किया परंतु बुद्ध ने जब मानवता की भलाई हेतु कार्य किए और लोगों के साथ दयालुता पूर्ण व्यवहार किया तो वही लोग जो उनका विरोध कर रहे थे, वे भी उनके अनुयायी बन गए । इस तरह उनका विरोध दया के प्रवाह में बह गया। जो दूसरों पर उपकार करता है वही सच्चा उदार मनुष्य हैं दूसरों के काम आने वाला व्यक्ति सदा अमर रहता है।

 

रहो न भूल के कभी मदांघ तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीन बन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

शब्दार्थ   –

मदांघ – घमण्ड
तुच्छ – बेकार

वित्त – धन
सनाथ – जिसके पास अपनों का साथ हो
अनाथ – जिसका कोई न हो

त्रिलोकनाथ – ईश्वर
चित्त – मन में
त्रिलोकनाथ – ईश्वर
दीनबंधु – ईश्वर

विशाल – लंबे, बड़े

अतीव – अत्यधिक

भाग्यहीन – अभागा

अधीर – उतावलापन

व्याख्या –  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि धन दौलत के घमंड में अहंकारी न बनने की प्रेरणा देता है। मनुष्य का स्वभाव ही है कि वह धन प्राप्त होते ही घमंड करने लगता है, मनुष्य की इसी प्रवृत्ति को ध्यान दिलाते हुए कवि कहता है कि धन आ जाने पर मनुष्य को घमंड नहीं करना चाहिए। धन दौलत के बल पर स्वयं को सनाथ मानना अर्थात सुरक्षित महसूस करना उचित नहीं है, यह केवल अभिमान का ही एक रूप है। इस संसार में कोई भी अनाथ अर्थात बेसहारा नहीं है, ईश्वर सदैव हमारे साथ रहते हैं।

उस ईश्वर के लंबे हाथ आशीर्वाद लिए सभी के सिर पर है। ईश्वर बहुत दयालु है उसकी दयालुता का कोई अंत नहीं है वह अनन्त शक्तिमान है। जो व्यक्ति धैर्यहीन, अशांत और असंतुष्ट है, वास्तव में सब कुछ पाकर भी वह अत्यंत भाग्यहीन है। सच्चा मनुष्य वह है जो परोपकार की भावना से दूसरों के लिए जीता मरता है और सब के काम आता है।

 

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यां कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

शब्दार्थ  –

अनंत – जिसका कोई अंत न हो

अंतरिक्ष – आकाश

देव – देवतागण

समक्ष – सामने

परस्परावलंब – एक दूसरे का सहारा

अमर्त्य -अंक — देवता की गोद

अपंक – कलंक रहित

सरे – पूरा होना, सिद्ध होना

 

व्याख्या –  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने परस्पर सहयोग की भावना को प्रतिबंधित किया है । कवि मनुष्य को एक दूसरे का सहायक बनने की प्रेरणा देता है। मिलजुल कर काम करने की प्रेरणा देता हुआ कभी कहता है कि हे मनुष्य कोई भी काम कठिन नहीं है, तुम काम की ओर अपने कदम बढ़ाओ, अंतरिक्ष के अनंत देवतागण तुम्हारी मदद करने के लिए तैयार खड़े  कवि कहता है कि एक दूसरे के सहयोग से आगे बढ़ो व सफलता की ऊँचाइयों को प्राप्त करो ।

देवताओं की पवित्र गोद में स्थान पाने के लिए निर्मल और कलंक रहित जीवन बिताओ अर्थात कल्याणकारी व मंगलमय कार्य करो। तुम इस तरह मत जीयो कि किसी के काम ना आ सको, ऐसा जीवन व्यर्थ है। सच्चा मनुष्य वही है जो दूसरों की भलाई के लिए जीता मरता है।

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व्याख्या – 

मनुष्य मात्रा बन्धु हैंयही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,

परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

शब्दार्थ   –

बन्धु – भाई बंधु

विवेक – समझ

पुराण पुरुष – पौराणिक पुरुष

फलनुसार – फल के अनुरूप

बाह्य – बाहरी
स्वयंभू – परमात्मा,स्वयं उत्पन्न होने वाला

अंतरैक्य – आत्मा की एकत, अंतःकरण की एकता

प्रमाणभूत – साक्षी

अनर्थ – बुरा

व्यथा – दुःख,कष्ट

व्याख्या –  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने भेदभाव भुलाकर मिल-जुलकर रहने की प्रेरणा दी है। कवि कहता है कि मनुष्य का सबसे बड़ा ज्ञान और विवेक यही है कि वह सारी दुनिया के लोगों को अपना भाई बंधु माने, उनके साथ मिल-जुलकर रहें और किसी प्रकार का भेदभाव न रखे।

सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं, सभी के बीच भाई-भाई का संबंध है। मनुष्य को अलग-अलग फल मिलने का कारण उसके अपने कर्म हैं, यही फल मनुष्य-मनुष्य में बाहरी भेद पैदा करते हैं परन्तु आंतरिक रूप से सभी एक है क्योंकि सभी में उसी ईश्वर का अंश समाया है। इतना जानने पर भी कोई मनुष्य, दूसरे मनुष्य की पीड़ा दूर न करें यह सबसे बड़ा अनर्थ है। वास्तव में सच्चा मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए जीता वह मरता है।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,

                  विपत्ति,विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क  एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

शब्दार्थ  –

अभीष्ट – इच्छित
मार्ग – रास्ता
सहर्ष -अपनी खुशी से
विपत्ति,विघ्न – संकट ,बाधाएँ

ढकेलना – रास्ते से दूर करना

हेलमेल – मेलजोल

भिन्नता – अलगाव
अतर्क – तर्क से परे

सतर्क – सावधान

पंथ – रास्ता

समर्थ – सक्षम

तारता – पार करते हुए

तरे – पार हो जाए
व्याख्या –  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने बाधाओं का सामना करते हुए , प्रसन्नता पूर्वक हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। कवि कहता है कि मनुष्य को अपने  इच्छित मार्ग पर हँसी-खुशी आगे बढ़ते रहना चाहिए। रास्ते में कोई भी कठिनाई आए तो उसे धकेलते हुए आगे बढ़ना चाहिए। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारी पारस्परिक एकता में कमी न आए और न ही किसी तरह का भेदभाव बढ़े। हमारे बीच विचारों में भी एकता बनी रहनी चाहिए ताकि हम तर्क-वितर्क से दूर होकर मंजिल की ओर बढ़ती रहें।

मनुष्यता का भाव तभी सार्थक होगा जब हम अपने लक्ष्य तक सतर्कता पूर्वक चलते हुए, लक्ष्य प्राप्त करें और दूसरों का कल्याण करें। दूसरों के मार्ग में भी यदि हमें बाधाएँ  दिखाई देती हैं तो हम उन्हें भी दूर कर उसका मार्ग सुगम बनाएँ ताकि वह भी सफलता प्राप्त कर सके। कल्याण व परोपकार की भावना ही मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाती है, वास्तविक मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए जीता व मरता है।

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