Dohe -Rahim , Vyakhya Class 9, Hindi Course B
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दोहे - रहीम

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रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय॥
शब्दार्थ –
चटकाय – झटके से
परि जाय – पड़ जाती है
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि प्रेम का बंधन किसी धागे के समान नाज़ुक होता है, जिसे कभी भी जान बूझकर, झटके से नहीं तोड़ना चाहिए बल्कि उसकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेम रूपी नाज़ुक बंधन को कभी भी नहीं तोड़ना चाहिए।
क्योंकि जब कोई धागा एक बार टूट जाता है तो फिर उसे जोड़ा नहीं जा सकता, टूटे हुए धागे को जोड़ने की कोशिश में उस धागे में गाँठ पड़ जाती है। उसी प्रकार कोई भी रिश्ता जब एक बार टूट जाता है तो फिर उस रिश्ते को दोबारा पहले की तरह जोड़ा नहीं जा सकता और जुड़ता भी है तो उसमें पहले जैसी आत्मीयता एवं पवित्रता नहीं आ पाती ।
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहै कोय॥
शब्दार्थ –
निज – अपने
बिथा – दर्द
अठिलैहैं – मज़ाक उड़ाना
बाँटि – बाँटना
लैहै- लेंगे
कोय – कोई
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि व्यक्ति को अपनी मन के दुख को अपने तक ही सीमित रखना चाहिए अर्थात् अपने मन की पीड़ा या दर्द को दूसरों से छुपा कर ही रखना चाहिए, दूसरों पर प्रकट नहीं करना चाहिए।
कोई भी आपके दर्द को बाँट नहीं सकता अर्थात कोई भी व्यक्ति आपके दर्द को कम नहीं कर सकता क्योंकि जब आपका दर्द किसी अन्य व्यक्ति को पता चलता है तो वे लोग मन ही मन खुश होते हैं और उसका मज़ाक ही उड़ाते हैं।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥
शब्दार्थ –
साधे -साधने पर सधै- सध जाते हैं, पूरे हो जाते हैं
जाय – नष्ट हो जाते हैं मूलहिं – जड़ में
सींचिबो – सिंचाई करना फूलै- फलों से
अघाय – तृप्त फलै- फलों से
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि एक बार में केवल एक कार्य ही करना चाहिए क्योंकि एक काम के पूरा होने से कई और काम अपने आप पूरे हो जाते हैं। यदि एक ही साथ आप कई लक्ष्य प्राप्त करने की कोशिश करेते हैं तो कुछ भी हाथ नहीं आता क्योंकि आप एक साथ बहुत सारे कार्यों में अपना शत-प्रतिशत नहीं दे सकते।
जैसे किसी पौधे में फूल और फल तभी आते हैं जब उस पौधे की जड़ में पानी डाला जाता है। उसकी शाखाओं, पत्तों आदि को पानी देने की आवश्यकता नहीं होती तात्पर्य यह है कि जब पौधे की जड़ में पर्याप्त पानी डाला जाएगा तभी पौधे में फल और फूल आएँगे।
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस॥
शब्दार्थ –
रमि – रमना नरेस- राजा
अवध-नरेस – श्री राम जा पर- जिस पर
बिपदा – विपत्ति आवत- क्षेत्र, प्रदेश
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि जब राम को बनवास मिला था तो वे चित्रकूट में रहने गए थे। चित्रकूट बहुत मनोरम और शांति प्रदान करने वाला प्रदेश है लेकिन घना व अँधेरा वन होने के कारण वहाँ अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
रहीम कहते हैं कि है जिस पर भी विपत्ति आती है वह चित्रकूट जाता है ,ऐसी जगह पर वही रहने जाता है जिस पर कोई भारी विपत्ति आती। कहने का अभिप्राय यह है कि विपत्ति में व्यक्ति कोई भी कठिन से कठिन काम कर लेता है।
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं॥
शब्दार्थ –
दीरघ- बड़ा,लंबा अरथ – अर्थ
आखर- अक्षर, शब्द थोरे – थोड़े
थोरे – थोड़े, कम आहिं- होते हैं
नट- कलाकार जो रस्सी पर चलता है कुंडली- घेरा
सिमिटि – सिकुड़कर, सिमटकर कूदि- कूदकर
व्याख्या – रहीम जी का कहना है कि अत्यंत कम अक्षर वाले दोहे के अंतर्गत बहुत गहरा एवं व्यापक अर्थ छिपा होता है तात्पर्य यह है कि दोहों में भले ही कम अक्षर या शब्द हैं, परंतु उनके अर्थ बड़े ही गहरे और बहुत कुछ कह देने में समर्थ हैं।
ठीक उसी प्रकार जैसे कोई नट रस्सी पर अपना करतब दिखाने के लिए, अपने शरीर को सिमटा कर, कुंडली मार लेने के बाद, छोटा करके आराम से रस्सी पर चढ़ जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी के आकार को देख कर उसकी प्रतिभा का अंदाज़ा नहीं लगाना चाहिए।
धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पियत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय॥
शब्दार्थ –
धनि – धन्य पंक – कीचड़
लघु – छोटा जिय – जीव
उदधि – सागर बड़ाई- महानता
पिआसो – प्यासा
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि सागर के जल की अपेक्षा कीचड़ का थोड़ा-सा पानी ही धन्य है क्योंकि उस पानी से न जाने कितने छोटे-छोटे जीवों की प्यास बुझती है ठीक इसके विपरीत सागर का जल बहुत अधिक मात्रा में होते हुए भी व्यर्थ होता है क्योंकि उस जल से कोई भी जीव अपनी प्यास नहीं बुझा सकता।
संसार के सभी प्राणी, समुद्र के पास जाकर भी प्यासे ही रह जाते हैं, समुद्र का पानी खारा होने के कारण उनकी प्यास नहीं बुझ पाती । कहने का तात्पर्य यह है कि बड़ा होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता यदि आप किसी की सहायता न कर सको, किसी के काम ना आ सके। महान वही है जो किसी के काम आए।
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥
शब्दार्थ –
नाद – संगीत की ध्वनि रीझि – मोहित हो कर, खुश हो कर
तन – शरीर मृग- हिरण
हेत- कल्याण, प्रेम समेत- सहित
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि जिस प्रकार हिरण मधुर संगीत की ध्वनि से खुश होकर अपना शरीर न्योछावर कर देता है अर्थात अपने शरीर को शिकारी को सौंप देता है। इसी तरह से कुछ लोग, किसी भी व्यक्ति की कला पर मुग्ध होकर ,उसकी कल्याण कामना करते हुए प्रेमपूर्वक अपना धन इत्यादि सब कुछ अर्पित कर देते हैं।
लेकिन वह लोग पशु से भी बदतर होते हैं जो किसी की कला पर प्रसन्न होकर भी उसे कुछ नहीं देते या दूसरों से तो बहुत कुछ ले लेते हैं लेकिन बदले में कुछ भी नहीं देते। कहने का अभिप्राय यह है कि यदि कोई आपको कुछ दे रहा है तो आपका भी फ़र्ज़ बनता है कि आप उसे बदले में कुछ न कुछ दें। कवि का आशय है कि मनुष्य को दूसरों की कद्र करनी चाहिए।
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बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥
शब्दार्थ –
बिगरी – बिगड़ी करौ किन कोय- कोई कुछ भी क्यों ना करे
फाटे दूध – फटा हुआ दूध मथे – मथन
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि कोई बात जब एक बार बिग़ड़ जाती है तो लाख कोशिश करने के बावजूद भी उसे ठीक नहीं किया जा सकता। जैसे अगर दूध एक बार फट जाए तो उसे कितना भी माथा जाए लेकिन उससे मक्खन नहीं निकलता।
कहने का तात्पर्य यह है कि अगर एक बार किसी संबंध खराब हो जाए तो कितनी भी कोशिश की जाए संबंध पहले जैसे नहीं हो पाते इसलिए कोई भी कदम उठाने से पहले हमें सौ बार सोचना चाहिए क्योंकि एक बार कोई बात बिगड़ जाए तो उसे सुलझाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि॥
शब्दार्थ –
बड़ेन – बड़ा लघु – छोटा
डारि- डालना आवे – आना
तरवारि- तलवार
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि किसी बड़ी चीज को देखकर, छोटी चीज की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए अर्थात बड़ी चीज़ के मिलने पर, किसी छोटी चीज़ को कम नहीं समझना चाहिए क्योंकि जहाँ छोटी चीज़ की जरूरत होती है वहाँ पर बड़ी चीज़ बेकार हो जाती है। जैसे जहाँ सुई की जरूरत होती है वहाँ तलवार का कोई काम नहीं होता।
बड़े अर्थात शक्तिशाली को सामने देखकर छोटे अर्थात कमज़ोर की उपेक्षा या उसका त्याग नहीं करना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि किसी भी चीज़ को कम नहीं समझना चाहिए क्योंकि हर एक चीज़ का अपनी-अपनी जगह महत्त्व होता है।
रहिमन निज संपति बिन, कौ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सके बचाय॥
शब्दार्थ –
निज – अपना संपति- धन – दौलत
बिपति – विपत्ति सहाय – सहायता
जलज – कमल रवि – सूर्य
व्याख्या – रहीम जी कहते हैं कि जब आपके पास धन नहीं होता तो कोई भी विपत्ति में आपकी सहायता नहीं करता अर्थात किसी भी प्रकार की विपत्ति या संकट आने पर व्यक्ति की निजी संपत्ति ही काम आती है।
जैसे बिना पानी वाले कमल को अनेक कोशिशों के बाद भी सूरज नहीं बचा सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कमल का आधार पानी ही नहीं रहे तो सूर्य भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता। ठीक इसी प्रकार आपका धन ही आपको, आपकी मुसीबतों से निकाल सकता है क्योंकि मुसीबत में कोई किसी का साथ नहीं देता।
रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥
शब्दार्थ –
पानी -चमक, सम्मान,जल बिनु – बगैर, बिना
सून – असंभव ऊबरै- उबरना
चून – आटा
व्याख्या – इस दोहे के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं कि पानी का अत्यधिक महत्त्व है और इसके बिना सब कुछ व्यर्थ है। इस दोहे में रहीम ने पानी को तीन संदर्भ में प्रयोग किया है- मोती मनुष्य तथा चून। मोती के संदर्भ में पानी का अर्थ है चमक ,रहीम जी कहते हैं कि पानी अर्थात चमक के बिना मोती व्यर्थ है।
मनुष्य के संदर्भ में पानी का अर्थ है इज़्ज़त, सम्मान। पानी अर्थात सम्मान या इज़्ज़त के बिना मनुष्य जीवन व्यर्थ है और चून के संदर्भ में पानी का अर्थ है जल। बिना पानी के चून अर्थात आटा व्यर्थ है। यहाँ कवि ने पानी की महिमा का बखान करते हुए उसके महत्त्व को अलग अलग सन्दर्भ में रेखांकित किया है।
पानी का पहला अर्थ चमक से है जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। पानी का दूसरा अर्थ मनुष्य के लिए इज़्ज़त, सम्मान लिया गया है। रहीम कह रहे हैं सम्मान या इज़्ज़त के बिना मनुष्य जीवन व्यर्थ है।
पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे का अस्तित्व पानी के बिना नहीं हो सकता और मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है, उसी तरह इज़्ज़त, सम्मान के बिना मनुष्य का जीवन जीना व्यर्थ हो जाता है।
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