Madhu kalash.

कुछ सीखें / खुद को खर्च करें / ताकि दुनिया आपको सर्च करे ।

Laghu katha Sangreh – Madhu Kalash Part – 1

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Madhu Kalash

Madhu Kalash

 

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                                                                                         एकता

एक दिन शरीर के सारों अंगों – हाथ, पाँव, मुख, नाक, कान  और आँखों के बीच विवाद हो गया। सभी अंग अपने अपने महत्त्व का बखान करने लगे और आपस में झगड़ने लगे। मनुष्य ने सभी को समझााने का भरसक प्रयत्न किया पर सभी अपनी अपनी बात पर अडिग रहे और स्वयं को बाकि अंगों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण घोषित करते रहे।

मनुष्य का संयम जवाब दे गया और सबको सबक सिखाने के उद्देश्य  से मनुष्य ने खाना खाना बंद कर दिया। सभी अंग परेशान हो गए और सब प्रार्थना करने लगे कि कहीं से खाना मिले तो सब ज़िंदा रह सकें।

मनुष्य बोला – अब समझ गए तुम सबका महत्त्व मिलकर रहने में ही हैं।

 

                                                                                विलक्षणता

        दुनिया के सबसे छोटा पक्षी गुंजन पक्षी ; हमिंगबर्ड, का बसेरा फूलों के एक पेड़ पर था। खाने पीने के लिए , रहने के लिए अच्छी सुख सुविधाएँ थीं उसके पास पर फिर भी वह दुखी था। फूलों के बीच, पेड़ की चोटी पर बैठकर जब वह अन्य पक्षियों को उड़ते देखता तो स्वयं को बहुत छोटा महसूस करता और सोच सोचकर दिल ही दिल में खूब रोता। अपने छोटे से शरीर से नफरत थी उसे।

एक दिन गुस्से में उसने कहा, ” हे भगवन् तुमने मोर को इतने सुंदर पंख दिए, कोयल को इतनी मीठा स्वर दिया और तुमने मुझे कुछ भी नहीं दिया, क्यों ?’’

         ईश्वर ने जवाब दिया ,” तुम्हारा जन्म कष्ट भोगने के लिए नहीं हुआ, तुम इंसानों की तरह मूर्खतापूर्ण बातें क्यों कर रहे हो वत्स, अपने अनूठेपन को पहचानों ,तुम अनुपम , अद्वितीय, बेजोड़ और विशिष्ट हो। अपनी इस विलक्षणता की कद्र करो और जैसा तुम्हे बनाया गया है उसी रूप में खुश रहना सीखो। ’’

 

                                                                                    उदारता

 एक बूढ़ा बीमार भिखारी सड़क के किनारे , पेड़ के नीचे पड़ा रहता। बीमारी और वृद्धावस्था के कारण वह काम करने में असमर्थ था। आते – जाते लोग जो कुछ उसके आगे डाल जाते , वह उसी से अपनी गुजर बसर कर लेता। एक बाालक प्रतिदिन उसी मार्ग से गुजरता और अपने टिफिन में से आधा खाना प्रतिदिन उस वृद्ध को दिया करता था।

    पर उस दिन बाालक स्वयं भी भूखा था, उसका टिफिन भी खाली था क्योंकि घर में खाने के लिए कुछ था ही नहीं । रोज़ की भाँति वृद्ध बालक के आने का इंतज़ार कर रहा था। बालक को देखते ही वृद्ध ने जैसे ही हाथ उठाए, बालक ने वृद्ध के दोनों हाथ पकड़ लिए और वृद्ध के गले लगकर रोने लगा, बोला  ˝ बाबा आज तो मेरे टिफिन में भी कुछ नहीं है। ˝

˝  बेटा आज तुमने मुझे वह सब दे दिया जिसके लिए मैं वर्शों से तरस रहा था। ˝ रूंघे गले से वृद्ध भिखारी बोला।

 

                                                                              उपयोगिता

रणजीत सेठ के द्वार से कोई अतिथि, कोई भिक्षु कभी खाली हाथ नहीं लौटता। एक दिन एक साधु सेठ जी के घर आया, साधु बहुत ही विनम्र और अच्छे स्वभाव का था। सेठ रणजीत सिंह उसके भद्र व्यवहार से बहुत प्रसन्न थे इसलिए उसे अपना भंडार दिखाने ले गए। एक जगह साधु ने बहुत सारे नीलम, मणियाँ हीरे, मोती रखे देखे। उत्सुकतावश साधु ने सेठ से पूछा -महाराज इन बहुमूल्य पत्थरों से आपको कितनी आमदनी हो जाती है ?

सेठ जी ने आश्चर्यचकित होकर जवाब दिया- महात्मन् ये क्या कह रहे हैं आप, इनसेे आमदनी नहीं होती, उल्टा इनकी सुरक्षा के लिए सिपाहियों को वेतन देना पड़ता है और भी बहुत सा धन खर्च करना पड़ता है इनकी रक्षा हेतु।

फिर तो सभी पत्थर बेकार हैं, सेठ जी। इनसे अधिक बहुमूल्य एक पत्थर , मैं आपको दिखाना चाहता हूँ और यह कहकर साधु सेठ जी को अपने साथ एक बुढ़िया की झोंपड़ी में ले गया। वहाँ उसकी चक्की को दिखाकर उसने कहा, ”यह पत्थर आपके उन अनुपयोगी पत्थरों से अधिक मूल्यवान हैं क्योंकि इस चक्की के द्वारा ही वृद्ध स्त्री अपना जीवन निर्वाह करती है।’’

 वस्तु का महत्त्व उसके रंग रूप से नहीं उसकी उपयोगिता से समझना चाहिए।

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                                                                             सहिष्णुता

रात का समय था, चारों ओर चाँदनी बिखरी हुई थी। तभी चाँदनी की नज़र एक सुंदर गुलाब पड़ी। ऐसा प्रतीत होता था कि पौधे के काँटों के बीच गुलाब उलझा हुआ है और मुश्किलों से अपनी सुंदरता और सुगंध बिखेर रहा है। चाँदनी असमंजस में थी कि इतने सारे काँंटों से घिरा है फिर भी खिला खिला , शांत, उज्ज्वल और कितना सुंदर कैसे है?

आखिर उसने गुलाब से पूछ ही लिया – इतने सारे काँटों के बीच जीवन बिताना तुम्हारे लिए असहनीय नहीं है, इन काँटों के बीच भी तुम पूर्ण शक्ति और साहस से अपनी सुंदरता और सुगंध बिखेर रहे हों। स्वयं इतने कष्ट में हो और गैरों को अपनी सुंदरता और सुगंध से मंत्रमुग्ध करते हुए शीतलता कैसे दे पाते हो तुम ?

फूल मुस्कुरा कर बोला – मित्र प्रकृति ने सभी को विभिन्न प्रकार की कठिनायाँ मुश्किलें तो दी ही हैं और सभी अपनी ज़िंदगी काँटों के बीच ही बिता रहे हैं। फिर सहिष्णुता की नीति अपनाने में मुझे ही कठिनाई क्यों होगी।

 

                                                                                          कृपणता

     शिष्य असमंजस में था कि नदियों का पानी मीठा होता है, पीने योग्य होता है , समुद्र का पानी खारा क्यों होता है ? यही प्रश्न उसने अपने गुरु से पूछा- देव नदियों का पानी अमृत समान मीठा होता है और उन्हीं नदियों कं जल संग्रह से समुद्र अपना भंडार भरता है फिर सागर का जल खारा क्यों होता है ?

गुरु ने शिष्य को समझाते हुए कहा – वत्स नदियों का जल , उनके आंतरिक गुणों के कारण मीठा होता है। सेवा, समर्पण, दान व उदारता की अपनी मीठास होती है और नदियों में ये सभी गुण विद्यमान हैं यही गुण नदियों का जल मीठा बनाए रखने में सहायक होते हैं। दूसरी ओर समुद्र ने केवल लेना और संग्रह करना ही सीखा हंै और इस बात का पश्चाताप स्वयं सागर को भी है उसके इसी पश्चाताप के कारण ही उसमे ज्वार भाटे उठते रहते हैं। उसकी कृपणता का कड़ुआपन उसके पानी को भी खारा बनाकर , पीने योग्य नहीं रहने देता।

 

                                                                                    अभ्यास

कुएँ की  कठोर, सख्त जगत को स्वयं पर घमंड हो गया। अहंकार से भ रा  कुआँ , जगत पर रखे मटके  का, रस्सी का मज़ाक उड़ाया करता। पनिहारिन जब भी मटका कुएँ की जगत पर रखती बेचारा मटका बेपेंदी का होने के कारण, इधर उधर लुड़कने लगता। जगत पर लगा पत्थर हॅंसता और कहता ˝ बेपेंदी के मटके तुम्हारा कोई ठिकाना नहीं , कभी इधर लुड़कते हो ,कभी उधर। ˝

पनिहारिन आती, प्रतिदिन उसी स्थान पर अपना मटका रखती, मटका इधर उधर लुड़कता और जगत का पत्थर प्रतिदिन मटके का मज़ाक उड़ाता, कई दिनों, महीनों तक यही सिलसिला चलता रहा।

समय के साथ कुएँ की जगत पर उस स्थान पर गड्ढा हो गया, जहाँ पनिहारिन द्वारा  रोज़ मटका रखा जाता था। अब वह मटका लुड़कता नहीं था , अपने स्थान पर स्थिर रहता था।

अब मटका विनम्रता से मुस्कुराकर कुएँ की जगत के पत्थर से बोला ˝ देखा मित्र तुम मेरा मज़ाक उड़ा रहे थे पर मैंने निरंतर अभ्यास द्वारा अपने कोमल अंगों से निरंतर अभ्यास से रगड़ रगड़ कर तुम्हारे कठोर षरीर में भी अपने लिए उपयुक्त स्थान बना ही लिया। ˝

 

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