Inderdhanush, Laghu katha Sangreh – Part 1
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सदुपयोग
तिहाड़ जेल में एक कैदी को अगले दिन सुबह फ़ाँसी दी जाने वाली थी। फाँसी से पहले वह ध्यान लगाए बैठा था कि तभी उसे मधुर स्वर में गाने के बोल सुनाई दिए, स्वर उसे अपनी ओर खींच रहा था। पूछने पर पता चला कि उसके साथ वाले कैदखाने में जो कैदी है वह किसी मशहूर कवि का लिखा गाना गुनगुना रहा है। उसने गाना गाने वाले उस कैदी से प्रार्थना की कि वह उसे गाना सिखाए।
‘‘कल तुम्हें फाँसी लगने वाली है , आज तुम गाना क्यों सीखना चाहते हो ?’’
‘‘ताकि मैं ये सोचकर शांति से मर सकूँ कि मैंने अपनी इस ज़िंदगी में एक और नया काम सीख लिया।’’ कैदी ने उत्तर दिया।
हमें हर पल ईश्वर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने हमें इस खूबसूरत धरती पर भेजा। जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग हुए हमें हर क्षण कुछ नया सीखते हुए जीवन पथ पर अग्रसर होना चाहिए।
निस्वार्थ
गुलाब का सुंदर फूल , अपनी पंखुड़ियाँ खोले खुशबू और सुंदरता बिखेर रहा था।
उसके आँचल में नन्हीं कली कई दिनों से अपनी पंखुड़ियाँ समेटे छिपने की नाकाम कोशिश कर रही थी।
गुलाब ने पूछा – पुत्री तुम अपनी सुंदर पंखुड़ियाँ बंद क्यों किए हो ?
कली बोली – मैं अपनी सुंदर पंखुड़ियाँ कभी नहीं खोलूँगी, इन्हें हमेशा समेटे रहूँगी।
गुलाब ने पूछा, ”क्यों’’
” ताकि मेरी सुंदरता और मेरी सुगंध मेरे पास ही सुरक्षित रहे, अन्य किसी तक ना
पहूँचे ’’
” पर तुम्हारी ये सोच सही नहीं है पुत्री ’’
” क्यों तात ’’
” अपनी पंखुड़ियाँ खोलकर सुंदरता और सुगंध बिखेरोगी नहीं तो कोई्र तुम्हें सराहेगा कैसे, कोई गुलाब नाम से कैसे जानेगा तुम्हे ? ’’
” लेकिन तात, औरों के लिए अपनी खूबसूरती लुटाना कहाँ की अक्लमंदी है ? लापरवाह लोगों के लिए अपनी सुगंध और सुंदरता बरबाद करना सरासर फिज़ूलखर्ची है।’’
” अपने गुणों को, अपनी अच्छाई को अपने में ही समेटे रहना, अक्लमंदी नहीं है नन्हीं कली, इन्हें अपने में ही समेटे रहोगी तो ये किसी के काम नहीं आएँगे ।’’
” अपनी सुगंध और सुंदरता मैं किसी को नहीं देना चाहती, मैं अपनी पंखुड़ियाँ यूँ ही समेटे रहूँगी तात’’
” तुम नादान, नासमझ हो पुत्री ।’’
” आपके लिए नादानी होगी पर मेरे लिए यह अक्लमंदी है ।’’
” पुत्री अपनी, कोई भी संपदा, कोई भी गुण ,कोई भी अच्छाई अपने तक सीमित रखने से समाप्त हो जाती हैं अपना अर्थ खो देती हैं। मुझे देखो मुझे फूलों का राजा कहा जाता हैं, क्योंकि मैं अपनी सुंदरता और सुगंध चारों ओर बिखेर रहा हूँ। तुम भले ही इसे फिज़ूलखर्ची कहो पर इसी फिज़ूलखर्ची के बल पर ही मैं इतना खिला खिला रहता हूँ और यश बटोर रहा हूँ।
अगर मैं अपनी पंखुड़ियाँ ना खेलता , अपनी सुंदरता और सुगध चारों ओर ना बिखेरता तो ये सब मेरे साथ ही चला जाता, कोई जान ही नहीं पाता कि मैं कितना सुंदर हूँ, मेरी सुगंध कितनी अच्छी है। अपने गुण अपने में ही समेटे इस दुनिया से विदा हो जाता। इसीलिए कहता हूँ नादान कली अपनी सुंदर पंखुड़ियाँ खोलो, अपनी महक चारों ओर फैलाओ और यश कमाकर , सबका प्यार बटोरकर इन आंतरिक खुशियों का आनंद लो ।’’
बंधन
सुंदर ,सुकोमल लता धीरे-धीरे बढ़ती गई और पास में खड़े वृक्ष को उसने अपने बाहुपाश में जकड़ लिया । वृक्ष का सहारा ले ,लता दिन प्रतिदिन बढ़ती गई और उसने वृक्ष को चारों ओर से अपने बंधन में बाँध लिया ।
ग्लानि का अहसास होते ही उसने अपने ग्लानि पूर्ण भाव वृक्ष के समक्ष व्यक्त किए,‘‘ मित्र तुम मेरे आश्रयदाता हो, जीवनदाता हो, तुम्हारा सहारा पाकर ही मै विकसित हो पाई हूँ पर तुम्हारे साथ मेंने अन्याय किया है । तुम्हें अपने बंधन में जकड़कर मैंने असहाय कर दया है । मेरे बाहुपाश का यह बंधन तुम्हें असहनीय होता होगा । अपने इस अन्यायपूर्ण कृत्य के लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। ’’
‘‘ प्रेम के जिस बंधन को पाने के लिए युगों -युगों से संसार के सभी प्राणी प्रयत्नशील हैं, उस बंधन से मुकत होने की बात मेरे मन में कैसे आ सकती है सखी ।’’ वृक्ष ने मृदु स्वर में उत्तर दिया ।
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ज्ञान का मोल
मनोहर की फैक्टरी में दिन रात काम होता, करोड़ों का बिज़नेस था उसका, समाज में बहुत प्रतिष्ठा थी पर एक दिन जैसे किसी की नज़र लग गई उसके बिज़नेस को, फैक्टरी की मशीनें अचानक बंद हो गईं। बहुत यत्न किए पर सफलता नहीं मिली। जो मज़दूर यह सोचते थे कि वे मशीनें ठीक करना जानते हैं , उन्होंने भी अपना हाथ आज़मा लिया पर कोई सकारात्मक परिणाम ना निकला। अंत में एक विशेषज्ञ को बुलाया गया , उसने मशीनों की जाॅंच की , मनोहर सहित सभी मज़दूर हसरत भरी निगाहों से उसे देख रहे थे। विशेषज्ञ ने पेंचकस निकाला , एक पेंच कसा ,एक को थोड़ा सा घुमाया और जैसे स्विच दबाया सारी मशीनें चल पड़ी।
विशोषज्ञ ने पाँच हज़ार रुपये का बिल बनाकर खजांची को दे दिया। बिल देखकर खजांची हैरान था कि सिर्फ दो पेंच घुमाने के पाँच हज़ार रुपये। मालिक को बिल दिखाया तो वह भी हैरान हो गया और बिल देने में आनाकानी करने लगा और प्रष्न करने लगा कि ज़रा से काम के इतने अधिक पैसे क्यों ? विशेषज्ञ से बिल का पूर्ण विवरण देने के लिए कहा। विषेशज्ञ ने विवरण सहित बिल दुबारा बनाया –
पेंच कसने के ……………………………………………………………… सौ रुपये
पेंच घुमाने के ……………………………………………………………… पचास रुपये
कौन सा पेंच घुमाना और कौन सा कसना है, इस जानकारी के चार हज़ार आठ सौ, पचास रुपये ,
कुल पाँच हज़ार रुपये।
सार्थकता
पृथ्वी, जल, वायु ,अग्नि और आकाश चारों तत्वों में अटूट रिश्ता बन चुका था , सभी आपस में प्यार की डोर से बंधे थे परंतु एक दिन पृथ्वी, जल, पवन और अग्नि आपस में झगड़ पड़े, सभी को अपनी अपनी शक्तियों पर घमंड हो गया, सभी अपनी अपनी महिमा का बखान करने लगे।
पृथ्वी ने अकड़कर कहा- मैं सबका पेट भरती हूँ, सबका बोझ उठाती हूँ । मैं तुम सबसे महान हूँ ।
जल ने लहराकर कहा – मेरे कारण ही सब जिंदा हैं, मेरे ही कारण संपूर्ण संसार में सरसता फैली हुई है।
पवन मस्ती में इठलाकर बोली – जीवन मेरे ही कारण है, मेरे बिना जीवन संभव नहीं। अगर मैं ना रहूँ तो सबका दम घट जाए, पवन का ही दूसरा नाम जीवन हैं।
अग्नि ने प्रचंड रूप लिया और गुस्से में भड़भड़ाकर बोली – मेरे ताप के कराण ही सब प्राणी शीत से बचे हैं, अगर मैं अपना आँचल समेट लूँ तो इस संसार में चारों ओर शीत भरी स्तब्धता छा जाए और कोई भी ना बचे।
आकाश अपना नील परिधान ओढ़े चुपचाप चारों मित्रों की लड़ाई देख रहा था और सोच रहा था कि ये सब नादान इस बात को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं कि ये सब मेरी अदृश्य गोद में जीवन धारण करें , सभी चिंताओं से मुक्त बैठे हैं।
लड़ते झगड़ते चारों मित्रों का ध्यान अचानक आकाश की ओर गया, जों शांतिपूर्वक चारों को झगड़ते हुए देख रहा था।
चारों ने आकशा से पूछा – मित्र तुम चुप क्यों हो, क्या तुम्हें अपनी शक्ति पर संदेह है?
आकाष ने शांतिपूर्वक कहा – मित्रों क्या तुम्हे नहीं लगता कि तुम्हारा इस तरह झगड़ना बेबुनियाद है, हम सबमें से एक के बिना बाकि चारों का अस्तित्व निरर्थक है। हम पंच तत्वों की सार्थकता साथ रहने में ही है। बड़प्पन इसी में है कि सब एक दूसरे की महत्ता को जाने और स्वीकार करें और विनय पूर्वक एक दूसरे का सम्मान करें।
उपहार
ईश्वर ने दुनिया बनाई और दुनिया बनाने के बाद मनुष्य की रचना की। ईश्वर जब मनुष्य को स्वर्ग से धरती पर भेजने लगे तो मनुष्य कुछ अनमना सा हो गया। ईश्वर ने मनुष्य को सांत्वना देते हुए कहा – उपहार में दो अमूल्य कलश दे रहा हूँ तुम्हें, अगर इन उपहरों का प्रयोग बुद्धिमता से करोगे तो जीवन में कभी दुख नहीं पाओगे, इनसे आंतरिक और बाह्य दोनो प्रकार के सुख अर्जित करने में सक्षम होगे तुम।
आश्चर्यचकित मनुष्य ने आनंदित होकर कहा – प्रभु इन कलशों के उपयोग बारे में विस्तार पूर्वक कुछ बताइए।
ईश्वर ने मनुष्य को बताया कि तुम्हारे दाएँ हाथ वाले कलश में मेहनत, दया, सहानुभूति और सत्य हैं और बाँए हाथ वाले कलश में केवल सुख है। देखने में दोनो कलश समान हैं इसलिए इनका प्रयोग ध्यान पूर्वक और बुद्धिमता से ही करना। दाहिने हाथ के कलश के प्रयोग द्वारा तुम बाँए हाथ के कलश की रक्षा करना, तुम्हें कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होगी। दाएँ हाथ के कलश में जो उपहार है उसका जितना अधिक प्रयोग करोगे, बाँए हाथ के कलश के उपहार में उतनी ही वृद्धि होती जाएगी और वह कभी समाप्त नहीं होना।
मनुष्य ने प्रसन्न होकर धरती की ओर प्रस्थान किया , रास्ता लंबा था। मनुष्य सोचने लगा, ईश्वर ने वो सब उसे दे दिया है जो जीने के लिए आवश्यक है इसलिए उसे चिंतित होने का आवश्यकता नहीं है। लंबे सफर के कारण वह काफ़ी थक चुका था, पास ही नदी भी दिखाई दे रही थीं मनुष्य ने सोचा, थकान उतारने के लिए नदी में स्नान कर लिया जाए तो अच्छा रहेगा।
बिना सोचे समझे उसने दोनो घड़ों को नदी किनारे स्थित पेड़ के नीचे रखा और नदी में स्नान करने के लिए उतर गया। स्नान करके बाहर आया तो उसे नींद आने लगी सोचा थोड़ी देर सोकर अपनी थकान उतार लेता हूॅं क्योंकि अभी तो और आगे तक जाना है।
मनुष्य की नींद पूरी हुई, थकान भी उतर गई थी। वह उठा उसने बिना सोचे समझे दोनों कलश उठा लिए और धरती की ओर चल पड़ा ।उसे पता ही नहीं चला कि अब बाँए हाथ का कलश यानि सुख वाला कलश उसके दाएँ हाथ में था और दाॅंए हाथ का कलश यानि मेहनत, दया, सहानुभूति और सत्य वाला कलश उसके बाँए हाथ में आ गया था।
ईश्वर के आदेशानुसार आज मनुष्य दाएँ हाथ वाले कलश को सुरक्षित रख रहा है और बाँए हाथ वाले कलश का उपयोग कर रहा है। उसे तो ज्ञात ही नहीं कि उसकी लापरवाही और नासमझी कि वजह से दोनों कलशों के स्थान बदल चुके है।
मनुष्य तो यही सोच रहा है कि वह ईश्वर की इच्छानुसार कर्म कर रहा है। आज मनुष्य के लिए सुख प्रधान है और मेहनत, दया, सहानुभूति और सत्य गौण हैं। वह मेहनत, दया, सहानुभूति और सत्य की रक्षा करता है कि सुख में कमी ना आए। मनुष्य संतुष्ट है यह सोचकर कि वह ईश्वर की इच्छानुसार कार्य कर रहा है।
पर वह इस वास्तविकता से अनभिज्ञ है कि ईश्वर की इच्छा पूरी ना हो सकी । मनुष्य वह बन गया , जैसा कि आज वह है। वह वैसा ना रह सका जैसा कि उसे बनाया गया था, जैसा उसे धरती पर भेजा गया था।
व्यवहारिकता
राहगीर अपने गंतव्य मार्ग की ओर जा रहा था। अचानक उसे संदेह हुआ कि वह राह भटक गया है। उसने देखा, उसके आगे आगे एक और राहगीर जा रहा था। उसने आगे जा रहे राहगीर से पूछा – मुझे पोस्ट आॅफ़िस जाना है, क्या आप सही रास्ता बता सकते हैं मुझे ?
दूसरे राहगीर राहगीर ने आश्चर्य से कहा- जाना तो मुझे भी पोस्ट आफिस ही है पर रास्ता मुझे भी नहीं मालूम। हम दोनों को मिलकर पोस्ट आॅफिस की तलाश करते हैं।
हमें दोनों अलग अलग दिशाओं में जाना चाहिए। आप पूर्व वाली सड़क पर जाइए और मैं उत्तर वाली सड़क पर जाता हूँ । फिर जब हम भविष्य में मिलेंगे तो एक दूसरे को विस्तारपूर्वक बताएँगे।
कल्पना को व्यवहारिकता से अलग रखकर हम केवल भटकते रह सकते हैं। भटकने के बजाय हमें व्यवहारिकता का रास्ता अपनाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
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