Short Stories , Laghukathayen – Sanchyan Part – 1
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मनुष्य के पास ज्ञान और धन दोनों थे और वह अपना जीवन सरता से जी रहा था परंतु एक दिन ज्ञान और धन दोनों में तर्क हुआ और दोनों तर्क आरंभ हो गया , तर्क ने वाद विवाद का रूप ाले लिया और आवेश में आकर दोनों में झगड़ा आरंभ हो गया। किसी तीसरे की आवश्यकता थी । दोनों आत्मा के पास पहुँचे और अपनी अपनी महत्ता का बखान करने लगे । आत्मा ने दोनों नासमझ बालकों को समझाया,
‘‘ अपने अपने स्थान पर दोनों ही महत्त्वपूर्ण हो पर तुम दोनों पूण्र नहीं हो ै विवेक द्वारा तुम दोनों में से जिसका उपयोग हो जाए वही बड़ा है और जो भी दुरुपयोग के पल्ले पड़ जाए उसका अस्तित्व ही निरर्थक है, गरिमाहीन है उसकी दुरर्गति होनी निश्चित है।
अपनी अपूर्णता की बात सुनकर दोनों ही नतमस्तक हो गए ।
मार्ग दर्शन
छात्रावास में एक नासमझ, अनाड़ी छात्र आया और कई बार गलत काम करते हुए पकड़ा गया । अन्य विवेकशील विद्वान छात्र उस नासमझ, अनाड़ी छात्र को प्रतिदिन प्रधानाचार्य जी के पास ले जाते और उसकी शिकायत करते । बार बार प्रधानाचार्य जी से निवेदन करते हुए उसे आश्रम से निकाल देने के लिए कहा पर प्रधानाचार्य जी ने आग्रह को अनसुना कर दिया । छात्रों को बहुत बुरा लगा और शोर मचाने लगे कि अगर आपने इसे यहाँ से नहीं निकाला तो हम सब छात्रावास छोड़कर चले जाएँगे ।
गुरु ने श्ष्यिों की बात सुनी और बोले,‘‘तुम सब बुद्धिमान हो, विवेकशील हो ,अपना भला- बुरा समझते हो पर यह नासमझ है, इस बेचारे को तो अपने अच्छे बुरे का भी ज्ञान नहीं है ।
अगर इसे यहाॅं से निकाल दिया तो इसका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा । हम सब बुद्धिमान और विवेकशील हैं, अगर हम सबमें इस एक बुद्धिहीन प्राणी को सही मार्ग पर लाने की और इसे सुधारने की क्षमता नहीं है तो हमारा विवेकशील होना निरर्थक है । तुम सब जाना चाहते हो तो चले जाओ पर मैं इस नासमझ को तब तक यहीं रखूँगा जब तक यह सुधर नहीं जाता । ’’
गुरु के तर्क के आगे सभी विद्यार्थी नतमस्तक हो गए ।
शांति
रमन अपना अधिकांश समय एकांत में बिताता, ना खाने- पीने में तर्क करता और न ही किसी प्रकार की इच्छा व्यक्त करता, कहीं जाना होता तो चुपचाप अपनी राह जाता और उसी राह चुपचाप लौट आता । पिता को चिंता हुई कि बेटे को यह क्या हो गया, वह इतना चुपचाप कयों रहने लगा है ?
और एक दिन पूछ ही लिया,‘‘ बेटा आजकल काम धंधा कुछ नहीं करते , क्या बात है ? किसी प्रकार की कोई परेशानी है क्या ? ’’
‘‘ पिता जी आप ही ने समझाया था कि मनुष्य को शांति का जीवन व्यतीत करना चाहिए ।’’ रमन ने विनीत भाव से उत्तर दया ।
पिता ने हँसकर कहा, ‘‘ बेटा चुपचाप पड़े रहने का नाम शांति नहीं है । अच्छी बुरी हर परिस्थिति में धैर्य पूवर्क दुखों और सुखों को सहन करते हुए बिना उद्विग्न हुए जीवन बिताना ही शांति है ।’’
धूर्त और संत
बेटा पिता के पास गया और बोला, ‘‘ पिता जी आजकल संत और धूर्त लोग सब एक जैसे ही दिखते हैं । पता करना बहुत ही मुश्किल है कौन संत है और कौन धूर्त ? कोई उपाय बताइए कि दोनों को पहचाना जा सके ।’’
‘‘ इसमें कौनसी बड़ी बात है बेटा । धूर्त सदैव सेवा करवाने के चक्कर में रहते हैं और संत सेवा करने के । संत हर परिस्थिति में एक सा व्यवहार करते हैं और धूर्त स्वार्थ सिद्धि के लिए चापलूसी ,चतुराई से पूर्ण रहते हैं । धूर्त माँगते हैं और संत देते हैं ।
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सत्य
दिन ढलने लगा और ढलते दिन के साथ परछाई लंबी होने लगी । वह म नही मन प्रसन्नता का अनुभव कर रही थी । उसे लगा आज तो उसकी विजय हो ही गई । अभिमान भरे स्वर में परछाई ने बालक से कहा, ‘‘ आज वह दिन आ ही गया, जब तुम्हें मुझसे पराजित होना ही पड़ा । देखो तुम जैसे थे वैसे ही बने रह गए और मैं तुम्हारी होकर भी तुमसे कितनी बड़ी हो गई हूँ ।’’
‘‘ पगली सत्य और मिथ्या में यही तो अंतर है । सत्य में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता और अपने मिथ्या स्वरूप् को देख लो , यह सदैव घटता बढ़ता रहता है ।’’
परिश्रम का फल
आम के बड़े पेड़ की शाखा पर बर्रों ने अपना बड़ा सा छत्ता बनाया । पास की ही एक शाखा पर हज़ारों मधुमक्खियाँ अपना छोटा सा छत्ता बनाने में पूरी तन्मयता के साथ परिश्रम कर रहीं थीं । बर्रों बड़े छत्ते में से एक बड़ी बर्र निकली और व्यंग्य करते हुए बोली, ‘‘ छोटा सा छत्ता और इतनी सारी मक्खियों का इतना सारा परिश्रम और इतना शोर गुल……हा-हा-हा…..।
मधुमक्खियों में से एक सयानी मधुमक्खी ने नहले पर दहला मारते हुए कहा,‘‘ बहन तुम भी एक छोटा छत्ता बनाकर दिखा दो जिसमें हमारे छत्ते जितना शहद भरा हो ।’’
चाह
बगिया में रंग- बिरंगे ,तरह -तरह के फूल खिले थे । जब हाथ गुलाब के फूल की ओर बढ़ा और बिल्कुल निकट जा पहुँचा तो उत्सुकतावश फूल ने पूछ ही लिया, ‘‘ बंधु इस समीपता का उद्देश्य क्या है ?’’
‘‘ तुम्हारे ऊपर उपकार करने आया हूँ , तुम्हें देवता के चरणों में पहुँचाने का विचार है ।’’ हाथ ने उत्तर दिया ।
‘‘ देवता के चरणों तक सौभाग्यशाली फूल पहुँच ही जाते हैं पर इन निरीह तितलियों और मधुमक्खियों के बारे में भी सोच लिया होता । मैं तो इन्हीं के काम आना चाहता हूँ और जहाॅं जन्मा हूँ वहीं मरकर खाद बनकर मिल जाने का संतोष पाना चाहता हूँ ।’’ उदास फूल ने उत्तर दिया ।
सामर्थ्य
ज़ोया बचपन से ही देख पाने में असमर्थ थी । वार्षिकोत्सव का समय था, सभी विद्यार्थी पूरे उत्साह से तैयारी में लगे थे । रात का समय था, लाईट नहीं थी, पर वद्याथ्रियों के उत्साह में कोई कमी नहीं थी, सभी उत्साहपूर्वक वार्षिकोत्सव की तैयारी में लगे थे । ज़ोया को तो पता ही नहीं था कि रोशनी क्या और कैसी होती है परंतु उसने यह सुना था कि जिनकी आँखों की रोशनी होती है वे लोग अंधेरे में काम कर पाने में असमर्थ होते हैं ।
ज़ोया के लिए तो दिन और रात सब बराबर थे पर वह भी वार्षिकोत्सव की तैयारी में अपना पूरा योगदान देना चाहती थी इसी मंशा से उसने टॉर्च ढूँढी, टॉर्च हाथ में ली ताकि सामने आने वाला देखे और उससे टकराए नहीं । टॉर्च लेकर निकली ही थी कि अफ़शा उससे टकरा गई, ज़ोया ने झुँझलाकर कहा, ‘‘ देखकर चलो, मैं ने हाथ में टॉर्च इसीलिए ली हुई है कि सामने से आने वाले मुझसे टकराए नहीं ।’’
‘‘ मित्र आपकी टॉर्च बंद है शायद, इसमें सैल नहीं है ज़ोया बहन आप पहले यह तो पता लगातीं कि जिस टॉर्च से आप दूसरों को प्रकाश देना चाहती हैं ,वह स्वयं भी प्रकाशित है या नहीं ।’’
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