laghu kathayen ( लघुकथा संग्रह नवधा से कुछ लघकथाएँ)
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आत्म संतुष्टि
सार्थक और सक्षम बहुत अच्छे मित्र थे। सार्थक आस्तिक था, दोनों वक्त मंदिर जाता, पूजा- पाठ करता था। सक्षम नास्तिक था पर बहुत मेहनती था । दोनों एक ही ऑफिस में काम करते, साथ-साथ ऑफिस जाते और साथ ही साथ ऑफिस से वापस आते । सोसाइटी में उनकी दोस्ती की मिसाल दी जाती थी ।
सार्थक ऑफिस जाने से पहले मंदिर जाता और हाथ जोड़कर ईश्वर से बहुत कुछ माँगता, ‘‘हे ईश्वर मुझे एक अच्छा-सा घर दें , एक कार दें, धन सम्पत्ति दें, अच्छा परिवार दें । शाम को ऑफिस से वापस आकर फिर से मंदिर जाता और ईश्वर से वही सब माँगता ।
सक्षम न सुबह मंदिर जाता और ना ही शाम को ।वह मन ही मन ईश्वर को याद करता, ऑफिस में सारा दिन मेहनत करता और रात को थककर सो जाता ।
सक्षम की उन्नति होती गई और सार्थक जहाँ था, वहीं रह गया । सक्षम की उन्नति देखकर सार्थक को बहुत ईर्ष्या हुई और उसने भगवान से शिकायत की कि प्रभु मैंने दिन-रात आपकी पूजा की और आपने उस नास्तिक सक्षम को सब कुछ दे दिया, क्यों ?
भगवान मुस्कुराकर बोले, ‘’ माँग -माँगकर परेशान करने की बजाए तुम भी मेहनत करते तो क्या बुरा था, अपने पूजा- पाठ के बदले कुछ न कुछ माँगते रहने पर, तुम्हारे पूजा-पाठ का कोई महत्व नहीं रह जाता । वत्स मेरा स्नेही आशीर्वाद उसी के साथ है जो आत्मसंतुष्ट हैं ।
सार्थक को समझ में आ चुका था कि आत्मसंतुष्टि ही सबसे बड़ा सुख है, जिसके आगे धन-वैभव का कोई मूल्य नहीं है ।
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पालनहार
दिल्ली शहर का करोड़पति आलोक बहुत दान- पुण्य करता, पूजा-पाठ करता हज़ारों लोगों के खाने का इंतजाम करता, देश-विदेश के ज़रूरत मंद लोगों की मदद करता। एक दिन उसे स्वयं पर बहुत घमंड हो गया और सोचने लगा कि दिल्ली शहर का पालक तो मैं ही हूँ,मैं ना रहूँ तो सब भूखे मर जाएँगे ।
एक दिन दिल्ली शहर में एक संन्यासी आए । उनकी शांतिप्रद बातें सुनने के लिए हजारों लोग उनके सत्संग में आने लगे । संन्यासी की चर्चा जब आलोक तक पहुँची तो आलोक भी कुछ उपहार लेकर संन्यासी के पास पहुँचा । पूरे गर्व से इतरा कर जनता की ओर इशारा करके बोला इन सबका पालक मैं ही हूँ महात्मन, आप कह सकते हैं कि दिल्ली शहर के सभी प्राणियों का पालनहार मैं ही हूँ ।
संन्यासी ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘वत्स स्वयं पर इतना न घमंड करें,सबका पालनहार ईश्वर है।’
पर घमंड से चूर आलोक अपनी बात पर अडिग रहा, तब संन्यासी ने पूछा, ‘बताओ आपके शहर में कितने कौवे, कुत्ते और कीड़े हैं । ’
आलोक ने आश्चर्य से पूछा, ‘तो क्या ईश्वर कीड़े -मकोड़ों को भी भोजन देते है ?’
संत ने कहा, ‘तू यही नहीं जानता तो इन्हें भोजन कैसे देता होगा ?’
आलोक बोला, ‘यदि ऐसा है तो मैं एक कीड़े को डिबिया में बंद करके रखता हूँ, कल डिबिया खोलकर देखूँगा, देखता हूँ डिबिया में बंद इस कीड़े को भगवान कैसे भोजन देते हैं?’
दूसरे दिन आलोक ने संत के पास आकर डिबिया खोली तो वह कीड़ा चावल का एक दाना बड़े प्रेम से कहा खा रहा था । डिबिया बंद करते समय यह चावल आलोक के मस्तक पर लगे तिलक से ही गिरा था ।
अब अभिमानी आलोक ने मान लिया कि ईश्वर ही सबका पालनहार है ।
वरदान
घड़े को अपने स्वास्थ्य और सौंदर्य पर बहुत अभिमान था, अपने रंग रूप और स्वास्थ्य को देखकर बहुत इतराने लगा था । एक दिन हल्की-सी चोट लगी और घड़ा टूटकर टुकड़े -टुकड़े होकर ज़मीन पर बिखर गया, उसका सारा अभिमान चूर -चूर हो गया ।
अपनी इस स्थिति के लिए वह ईश्वर को दोष देता हुआ कहने लगा, ‘हे ईश्वर ! तुम कितने निर्दयी हो तुम से मेरा स्वास्थ्य, मेरा सौंदर्य और मेरी प्रसन्नता देखी नहीं गई । तुम हमेशा ही हँसते खेलते लोगों को यूँ ही नष्ट कर दिया करते हो, ऐसा क्यों करते हो भगवन ?
तभी धरती माँ ने उस टूटे हुए घड़े के टुकड़ों को अपने आँचल में समेटा और समझाते हुए बोली, ‘वत्स ऐसा मत कहो, ईश्वर जो भी करता है अच्छा ही करता है। तुम्हे नहीं पता टुकड़े-टुकड़े होकर तुम किस अनंतता में लीन होने का वरदान पा रहे हो ।
लक्ष्य
नदी अपनी धुन में झूमती हुई बही जा रही थी, रास्ते में जो भी कंकड़-पत्थर आते, उन से टकराती हुई , बिना रुके अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर थी ।
तभी एक बड़े पत्थर ने उसे रोककर कहा, ‘बहन थोड़ा विश्राम कर लो, इंसान ने तुम्हें लूटा ही लूटा है, उसने तुम्हें बर्बाद करने में, प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, विश्राम के लिए तुमसे किसी ने भी नहीं पूछा, थोड़ा विश्राम कर लो बहन ।’
‘धन्यवाद बन्धु’ नदी ने टीले का धन्यवाद किया और मुस्कुराते हुए बोली, ‘बन्धु लक्ष्य तो चलते रहने से ही मिलता है, मुझे अभी बहुत दूर जाना है इसलिए विश्राम नहीं कर सकती ।’ और नदी अपनी धुन में झूमती- गाती, कंकड़- पत्थरों से टकराती लक्ष्य की ओर बढ़ गई ।
भविष्य
मगध राज्य का नियम था कि एक राजा वहाँ केवल बारह वर्ष तक ही राज्य कर सकता था और बारह वर्ष तक राज्य करने के बाद उसे जंगल में जाकर रहना पड़ता था । राजा रणजीत सिंह गद्दी पर बैठे लेकिन वह इस नियम से बहुत चिंतित थे । धीरे -धीरे 11 वर्ष बीत गए, एक वर्ष के बाद राज्य के नियमानुसार उन्हें भी वन में जाकर रहना था ।
तभी उनके दरबार में एक महात्मा आए, राजा की चिंता सुनकर उन्होंने राजा को परामर्श दिया कि इस राज्य की अधिक से अधिक धन- संपत्ति अभी से वन में भेज दो, वहाँ जाने पर उसका उपयोग करना और आनंदपूर्वक अपना जीवन जंगल में व्यतीत करना । राजा ने ऐसा ही किया और 12 वर्ष पूरे होने पर नियमानुसार राज्य छोड़कर वन में जाकर ख़ुशी -ख़ुशी, आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे ।
भविष्य को ध्यान में रखकर विचारपूर्वक जीने वाले लोगों का ही जीवन सार्थक होता है।
एकता
भवन निर्माण का कार्य चल रहा था, पास ही ईंटों का ढेर लगा था। ईंटें आपस में बातें कर रही थी कि इन गगनचुंबी इमारतों का निर्माण हमारे कारण ही संभव है । अगर शिलान्यास ही न हो तो भवन निर्माण तो दूर, एक दीवार भी खड़ी न हो पाए ।
सीमेंट ने ईंटों की गर्व भरी बातें सुनी तो उससे रहा नहीं गया । पूरे गर्व के साथ सीमेंट ने मुस्कुराकर कहा, ‘इतना झूठ मत बोलो, यह तो तुम भी जानती हो कि अगर मैं तुम ईंटों को ना जोड़ूँ तो कोई भी ठोकर मारकर तुम्हें गिरा सकता है , मेरे बिना तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं । मैं ना रहूँ, तो भवन निर्माण का काम रुक जाएगा इसलिए मैं ज़्यादा महत्वपूर्ण हूँ ।
लकड़ी के बने दरवाज़े और खिड़कियों ने भी प्रतिवाद किया, भाई यह तो सभी जानते हैं कि ईंटों को जोड़- जोड़कर तुम दीवारें खड़ी करते हो पर यदि उस भवन में खिड़की दरवाज़े न हो तो रहने को भी कोई तैयार नहीं होगा । जहाँ खिड़की दरवाज़े ही न हों,ऐसे असुरक्षित भवन में कौन रहना चाहेगा ? भवन की पूर्णता तो हम पर ही निर्भर करती है ।
मकान बनाने वाला शिल्पी चुपचाप खड़ा सुन रहा था बोला आप सभी का कितना भी महत्व क्यों न हो पर सबको एक सूत्र में पिरोने वाला तो मैं ही हूँ ,यदि मेरा हाथ न लगे तो ईंटें, सीमेंट, खिड़कियाँ और दरवाज़े अपने -अपने स्थान पर ही पड़े रहेंगें ।
मेरे बिना आप में से किसी का भी कोई अस्तित्व नहीं और फिर आधे अधूरे भवन ने हँसकर कहा कि एकता के अभाव में व्यक्तिगत अस्तित्व का कोई महत्व नहीं है, झूठे अभिमान को छोड़ो और दूसरों के महत्व को भी समझो ।
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