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Laghu Kathayen ( laghukath Sangrah – Manjusha ) Part -2

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Manjusha

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You May Like –विडियो – क़हानी पतंग                                                                

                                                                     विशालता

पृथ्वी स्तब्ध थी और आकाष हैरान था । संसार की सभी वनस्पतियाँ उनके अभाव में विक्षिप्त हो गईं थीं किंतु सूर्यदेव अपनी ही ज़िद पर अड़े थे , निकलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। पृथ्वी के सभी जीव-जंतु, वनस्पतियों ने सूर्य देव से अनुनय की ˝ चलिए सूर्यदेव अपने दर्शन दीजिए, आपकी अनुपस्थिति में सभी चेतनाहीन हो रहे हैं। हॅंसते खेलते संसार में मरघट की सी षांति छा गई है। ˝

परंतु सूर्यदेव बहुत क्रुद्ध थे, अपनी नाराज़गी व्यक्त करते हुए बोले ˝ सभी सांसारिक जीव कृतघ्न हैं। अनादिकाल से देवता कहकर मेरी पूजा करते आ रहें हैं और आज आधुनिक तकनीक के आने कारण, विकास करने के कारण मुझे आग का गोला कहने लगे हैं। ऐसे संसार को मैं अपनी एक भी किरण नहीं दूँगा।

सूर्य का उत्तर सुन, सभी निराष होकर लौट आए पर बरगद का वृद्ध पेड़ गांभीर्य में डूबकर बोला ˝ देव आप इतने समझदार और दूरदर्षी हैं, इस बात से अनजान कैसे हैं कि बुद्धि का तो काम ही है पत्थर फेंकना और मन का काम है उस पत्थर को सहना, मन समुद्र जैसा विषाल बन जाए तो उसमें ऐसे ऐसे पत्थरों के पूरे पूरे पहाड़ समा जाएँ और मन को घड़े की भाँति कोमल बना लिया जाए तो एक पत्थर के वार से ही टूटकर बिखर जाएगा। ˝

सूर्य देव ने वृद्ध बरगद की बात का मर्म समझा और अपने रथ पर आरूढ़ होकर निकल पड़े तम से आच्छादित धरा को प्रखर आलोक देने।

 

                                                           ज्ञान दान

 तीन घनिश्ठ मित्रों में बहस छिड़ गई, ऋशिक ने कहा धन का दान सर्वोपरि है, लक्ष्य ने कहा गोदान सर्वोपरि है, सुविज्ञ अपनी बात पर अड़ा रहा कि भूदान सर्वोपरि है। तीनों अपनी अपनी बात पर अड़े रहे और बात बहुत बढ़ गई। जब कोई ह लना नकला तो तीनों गुरु ली के पास पहुँचे। गुरु जी ने तीनों की बात का कोई उत्तर नहीं दिया, उन्होंने ऋशिक को धन देकर वापिस भेज दिया। मार्ग में ऋशिक को एक भिखारी मिला, उसने सारा धन भिखारी को दे दिया और संतुश्ट होकर लौट आया।

दूसरे दिन गुरु जी ने लक्ष्य को गाय दी और जाने के लिए कहा। लक्ष्य गाय लेकर निकल पड़ा , कुछ दूर जाने पर उसे भी वही भिखारी मिला, उसने भी अपनी गाय उसी भिखारी को दे दी और प्रसन्नतापूव्रक लौट आया।

तीसरे दिन गुरु जी ने भूमि का टुकड़ा सुविज्ञ को दिया और उसे भी जाने के लिए कहा।

सुविज्ञ को भी मार्ग में वही भिखारी मिला, उसने भूमि का वह टुकड़ा उस भिखारी को दान कर दिया।

कुछ दिनों बाद गुरु जी तीनों को लेकर उसी मार्ग से निकले, भिखारी आज भी कटोरा लिए वहीं खड़ा भीख माँग रहा था, भिखारी भीख माँगते देख तीनों मित्रों को बहुत आष्चर्य हुआ। गुरु जी ने समझाया , दान वही सर्वश्रेष्ठ है जिसका सदुपयोग हो इसलिए ज्ञान दान ही सर्वश्रेष्ठ है।

                    

                                                      जन मानस के मोती

  पवस ऋतु थी, स्वाति नक्षत्र था। प्यासी धरा को तृप्त करने के लिए वर्शा ऋतु का आगमन हो चुका था। वारिद के आँचल से निकलकर एक जल बिंदु तेज़ी से सागर की ओर बढ़ रहा था, तभी वृक्ष की हरित नवल कोपल ने उसे रोककर पूछा ˝प्रिये किधर चले ? आओ थोड़ा विश्राम कर लो। ˝

˝ बंधु जलनिधि पर सूर्य का प्रकोप हुआ है। सूर्य ने उसे सुखाने की ठान ली है, बस जलधि की सहायता के लिए अग्रसर हूँ इसलिए थोड़ा जल्दी में हूँ। ˝

˝ स्वयं को मिटाकर भी कोई किसी की सहायता करता है क्या ? छोड़ो व्यर्थ की चिंता, समुद्र इतना व्यापक है और तुम इतनी छोटी सी बूँद, तुम्हारा स्वयं का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और जलध का उद्धार भी नहीं कर पाओगी तुम। छोटी सी ज़िंदगी है, आनंद उठाओ और मेरी इस कोमल षय्या पर इस चार दिन की ज़िंदगी का आनंद उठाओ। इतनी कोमल षय्या तुम्हे कहीं भी नहीं मिलेगी, आओ थोड़ा विश्राम करो मेरी कोमल ,नवल, हरित को़पल पर। ˝

परंतु जलबिंदु ने कोंपल की एक न सुनी और निकल पड़ा अपने लक्ष्य की ओर । नीचे सागर की छाती पर तैर रही थी एक सीप , उसने जल बिंदु को छिपा लिया अपने आँचल में ।छोटा सा जलबिंदु, जलबिंदु ना रहकर बन गया मोती ।

सागर की हिलोरें लेती चंचल लहरों से धीमी आवाज़ आई,” जो निज अस्तित्व की चिंता छोड़कर दूसरों के कल्याण के लिए उदारता पूर्वक अग्रसर होते हैं, वे बन जाते हैं – जनमानस के मोती।

 

                                                                 भ्रम

       प्रथमेश एक साधारण युवक था पर धीरे धीरे धर्म में उसकी आस्था बढ़ी और वह मोह माया से विलग हो गया। अपनी सारी धन संपत्ति समाज कल्याण के कार्यों में लगाकर, संन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगा। सर्वत्र उसके सत्कर्मों की चर्चा होने लगी, जल्दी ही आस पास के सभी क्षेत्रों में उसकी ख्याति फैल गई। समाज के कुछ प्रतिनिधियों नें योगी प्रथमेश से विनम्र निवेदन करते हुए कहा, ” योगी राज आपके द्वारा किए गए समाज कल्याण के कार्य प्रषंसनीय हैं, समाज सदैव आपका ऋणी रहेगा। हम सार्वजनिक रुप से आपको सम्मानित कर, आपको दानवीर, मानव रत्न आदि अलंकरणों से विभूषित करना चाहते हैं।

    योगी प्रथमेष ने मुस्कुरा कर कहा, ”बंधुओं आप भ्रमित ना हों मैंने कोई त्याग नहीं किया, जो भी किया है वह स्वार्थ वश अपने ही लाभ के लिए किया है। समुद्र किनारे खड़े व्यक्ति की झोली में शंख, सीप भरे हों और उसे मोती दिखाई दे जाएँ तो वह शंख, सीप फेंककर, अपनी झोली में मोती ही भरेगा और यह त्याग का परिचायक नहीं है। मैंने भी यही किया क्रोध, लोभ, मोह आदि को छोड़कर, अहिंसा, परोपकार, क्षमा जैसे सदगुणों को स्थान देना त्याग नहींे वरन् एक प्रकार का स्वार्थ और लाभ कमाना ही है।‘‘

 योगी की बातें सुनकर जनप्रतिनिधि नतमस्तक होकर लौट गए।

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                                                                     मैं

  अद्धृत की अपने गुरू में गहन आस्था थी, उसके मन में अपार श्रद्धा थी गुरु के प्रति। गुरु से बिछड़े बहुत समय हो गया था उसे । गुरु से मिलने को मन आतुर था सो निकल पड़ा घर से । रास्ते में अनेक कठिनाईयाँ आईं पर वह गुरु का नाम जपता रहा और मुश्किलें खुदबखुद दूर होती गईं । अब उसके सामने गहरी नदी अपने पूरे उफान पर थी। नदी के किनारे पहुँचा, अपने गुरु का नाम लेते हुए पानी पर कदम रखता रहा और गुरु का नाम जपते – जपते नदी दी पार कर गुरु की कुटिया में पहुँच गया ।

 गुरु ने शिष्य को देखा तो खुशी की ठिकाना ना रहा।

गुरु आश्चर्य से बोले ,” वत्स मार्ग कठिन था और आज तो नदी भी अपने पूरे उफान पर है ,तुम इतनी मुश्किलों को और नदी के उफान को पार करने में कैसे सफल हुए ?’’

शिष्य ने विस्तार पूर्वक अपना अनुभव गुरु के समक्ष व्यक्त किया । क्षण भर में गुरु का ध्यान भंग हुआ और दन्होंने सोचा मेरे नाम में इतनी शक्ति है कि मेरा नाम लेकर शिष्य नदी पार कर सकता है तो मैं तो बहुत महान और शक्तिशाली हूँ ।

अहंकारवश अगले दिन गुरु जी ने नदी पार करने के लिए नाव का सहसरा ना लेकर , नदी के पानी पर पैर रखकर मैं मैं मैं का जाप आरंभ कर दिया। पानी पर पाँव रखते ही गुरु जी नदी में डूबने लगे और देखते ही देखते उनका प्राणांत हो गया।

 

 

                                                           सृष्टिकर्ता

ऋतुंजय का पूरा परिवार धार्मिक प्रवृत्ति का था , पूजा- पाठ ,हवन उनकी दिनचर्या में शामिल थे परंतु ऋतुंजय का पुत्र ऋपुदमन पूरा नास्तिक था । आजकल का आधुनिक युवा था वह कहता था ,”यह संसार , संसार की सारी क्रियाएँ स्वाभाविक हैं, सब कुछ अपने आप ही होता है । ईश्वर जैसी कोई शक्ति नहीं जो इस संसार का संचालन करती है ।’’

ऋतुंजय बहुत दुखी और निराश था यह देखकर कि उसका इकलौता पुत्र नास्तिक है। बेअे को सही राह पर लाने के उद्देश्य से उसने कैनवस पर एक सुंदर चित्र बनाया । ऋपुदमन को पेंटिग की कीत्राफी समझ थी और वह स्वयं एक अच्छा पेंटर भी था । चित्र देखते ह ीवह बहुत प्रसन्न हो गया और पूछने लगा,” बाबा यह चित्र किसने बनाया है ?’’

ऋतुंजय ने गंभीरता पूर्वक जवाब दिया, ” कमरे में कैनवस, ब्रश, रंग , पेसिलें सभी सामान रखा था बेटा और तुम तो जानते ही हो कि सब कुछ स्वाभाविक है, अपने आप ही होता है सब कुछ। कैनवस पर यह चित्र भी अपने आप ही बन गया बेटा ।’’

ऋतुंजय की बात सुनकर , ऋपुदमन अचानक से उठ खड़ा हुआ और बोला,” ऐसा कैसे हो सकता है । चित्र बनाने वाला होगा तो चित्र कैसे बनेगा ?’’

ऋतुंजय को इसी पल का इंतज़ार था, झट से बोला,” पुत्र बिना चित्रकार के चित्र नहीं बन सकता तो यह इतनी बड़ी सृष्टि बिना सृष्टिकर्ता के अपने आप कैसे बन सकती है।’’

पिता का तर्क सुन, पुत्र नतमस्तक हो गया।

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