Inderdhanush, Laghu katha Sangreh – Part 2
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परिमार्जन
नदी के किनारे नारियल का ऊॅंचा वृक्ष लगा था। नीचे नदी में बहुत से पत्थर पड़े थे। नदी में पानी कुछ काम था, लोग वहाँ से नदी पार करके एक किनारे से दूसरे किनारे आते थे। पैड़ की ऊॅंची डाल पर एक नारियल लटक रहा था, अपनी ऊॅंचाई पर बहुत घमंड था उसे। नीचे नदी में पड़े पत्थर को देख उसे स्वयं पर घमंड होने लगा।
पत्थर को देखकर घृणापूर्वक कहा ,” कितना तुच्छ जीवन व्यतीत कर रहे हो तुम, लोगों के पैरों के नीचे पड़े रहते हो, नदी के पैर छोड़ो और उत्तम जीवन व्यतीत करो। मुझे देखो मैं कितने सम्मान के साथ इतनी ऊॅंचाई पर मज़े से जीवन यापन कर रहा हूँ ।’’
पत्थर चुपचाप पानी में पड़ा, नारियल की ओर देखकर मुस्कराता रहा ,नारियल की बात का उसने कोई उत्तर न दिया। कुछ समय बाद एक शिव भक्त नारियल के पेड़ पर चढ़ा और नारियल तोड़कर उसने अपनी पूजा की थाली में रख लिया। नदी के किनारे ही शिव मंदिर था, पूजा थाली लिए भक्त चल दिया मंदिर की ओर, नारियल ने देखा नदी का वही पत्थर शालिग्राम के रूप में प्रतिष्ठित था।
जिसकी पूजा के लिए उसे नैवेध के रूप में लाया गया था। शालिग्राम के रूप में नदी के तुच्छ पत्थर को देखकर नारियल क्रोधित हो उठा। नारियल के मन की पीड़ा समझ कर शालिग्राम का पत्थर बोला, ” हे नारिकेलि! देखा घिस घिसकर परिमसर्जित होने का परिणाम क्या होता है ? और अभिमान और घमंड करने वाले का क्या हश्र होता है ?’’
नारियल बेचारा शर्मिंदगी से सिर झुकाए उसी तुच्छ पत्थर , के सामने निरीह सा पड़ा था जा अब जो परिमार्जित होकर शालिग्राम का रूप ले चुका था । तभी मंदिर का पुजारी आया ,उसने भक्त के हाथ से पुजा की थाली ली, उसमें से नारियल निकाला और शालिग्राम के आगे ज़मीन पर नारियल को पटक कर उसके दो टुकड़े कर दिए।
पूरक
अपने अपने महत्त्व को लेकर ज़िदगी और मौत के बीच काफी समय से बहस छिड़ी थी। एक दिन दोनों क्षितिज की ओंट में बैठी बातें कर रहीं थीं। ज़िंदगी कहने लगी – मेरी महत्ता तुमसे ज़्यादा है, सभी मुझे प्यार करतें हैं। जहाँ भी मैं जाती हूँ वह चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ छा जाती है और तुम जहाँ जाती हो सब नष्ट कर देती हो, सब तुमसे दूर भागते हैं, वैसे भी नष्ट करने वाले का संसार में कोई महत्त्व नहीं होता।
मौत ने ज़िंदगी की बात का बुरा नहीं माना। मुस्कुराकर बोली – तुम और मैं एक ही सिक्के के दो पहलृ हैं, एक के बिना दूसरे का अस्तित्व निरर्थक है। मैं हूँ इसीलिए तुम्हारा महत्त्व है। मैं हूँ इसीलिए संसार तुम्हे चाहता है। अगर मैं तुमसे अलग हो जाऊॅं तो तुम्हारी कीमत दो कौड़ी की है। मौत की ऐसी बातें सुनकर ज़िंदगी क्रोधित हो उठी , मौत की बातें , ज़िंदगी को शूल की तरह चुभीं और वह अपना संयम खो बैठी।
ज़िंदगी ने मौत को बुरा भला कहना शुरु कर दिया, संयम खोकर मौत का अपमान करने लगी। अब तक मौत , ज़िंदगी की सारी बातें संयम पूर्वक मुस्कुराकर सुन रही थी पर ज़िंदगी अपनी सारी सीमाएँ पार कर चुकी थी और मौत उसकी अपमानजनक बातें बरदाश्त नहीं कर पा रही थी, इसलिए नाराज़ होकर ,रूठकर वहाँ से चली गई।
दुनिया में जब यह बात फैली कि ज़िंदगी और मौत के बीच झगड़ा हुआ है और दोनों के बीच संबंध खत्म हो गए हैं तो लोग ज़िंदगी से ज़्यादा प्यार करने लगे।
ज़िंदगी अपनी जड़गति से घबरा गई और दौड़ी दौड़ी मौत के पास पहुँची और अपनी गलतियों के लिए क्षमा माँगने लगी। उसे समझ आ गया था कि ज़िंदगी और मौत दोनो एक दूसरे के पूरक और सहायक हैं।
विनम्रता
नदी के तट पर कीकर का वृक्ष लगा था, वहीं पास ही नदी में बाँस का पेड़ भी खड़ा था। दोनों खुश थे अपनी अपनी ज़िंदगी से। तेज़ हवा के चलने पर और छोटी-छोटी लहरों के थपेडे़ लगते ही बाँस का नाज़ुक , लचीला पेड़ झुक झुक कर लहरों को चूमने लगता और कीकर का पेड़ ज़ोर से अट्टाहस करते हुए कहता – ज़रा सी हवा चलने पर, छोटी छोटी लहरें उठने पर तुम डगमगाने लगते हो, झुक जाते हो।
मुझे देखो मैं कितनी शान से, गर्व से सिर ऊॅंचा किए सीधा खड़ा रहता हूँ। बाँस बेचारा चुपचाप, कीकर के कटाक्ष सहकर भी शांत रहता। कीकर, उसका उपहास उड़ाने का कोई्र मौका हाथ से ना जाने देता। बाँस बेचारा सिर झुकाकर केवल इतना ही कह दिया करता- वृक्षराज मैं तो विनम्रता में विश्वास रखता हूँ, अभिमान में नहीं, मैं अपनी जड़े ज़मीन में ही रखना चाहता हूँ इसीलिए सबके सामने विनम्रता पूर्वक नतमस्तक हो जाता हॅू। बाँस की बातें सुनकर , कीकर का वृक्ष ज़ोर ज़ोर से हॅंसकर उसका और अधिक मज़ाक उड़ाता।
एक दिन आँधी तूफान के साथ नदी में भयंकर बाढ़ आ गई , बाँस का वृक्ष अपनी आदत के अनुसार पूरी तरह से झुक गया और घमंड से चूर कीकर और ज़्यादा अकड़कर खड़ा हो गया।
बाढ़ का तेज़ बहाव और उस पर आँधी तूफान , कीकर का अभिमानी पेड़ आँधी, तूफान, बाढ़ के सामने टिक नहीं पाया और जड़ सहित उखड़ कर बाढ़ के पानी के बहाव के साथ बह गया।
आँधी रुकी, बाढ़ का पानी भी धीरे धीरे उतर गया, सुबह हुई सूरज निकला और झुका बाँस फिर से उठ खड़ा हुआ। कीकर के वृक्ष का अंत देख बाँस को हॅंसी नहीं आई, उसे तो दुख ही हुआ। ईश्वर को धन्यवाद दिया कि ईश्वर ने उसे कीकर की तरह अभिमानी ना बनाकर विनम्र और उदार बनाया।
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अभिशाप
देवी लक्ष्मी को अपनी षक्तियों पर बहुत अभिमान हो गया। एक दिन ब्रह्मांड का भ्रमण करते हुए धरती पर उतरी। धरा ने पूर्ण विनय के साथ लक्ष्मी जी का स्वागत किया और उनसे प्रार्थना की – देवी! धरा पर मेरी संतान बहुत परिश्रमी है, आपसे विनती है कि मरी संतान को किसी भी प्रकार का वरदान मत देना।
क्यों – लक्ष्मी जी ने आश्चर्य से पूछा।
वरदान मिलते ही मेरी संतान भी स्वर्ग के देवी, देवताओं की तरह आलसी और कर्म हीन हो जाएगी – धरा ने उत्तर दिया।
लक्ष्मी जी ने दर्प और व्यंग्य पूर्वक मुस्कुराते हुए कहा – मेरे वरदान पाने के लिए सब लालायित रहते हैं इसीलिए तो तुम्हारी संतान दिन रात मेरी पूजा अर्चना में लीन रहती है। सबको आनंदमय जीवन की तलाश है और मेरे आशीर्वाद के बिना कोई आंदित नहीं रह सकता। तुम्हारा मुर्खतापूर्ण अनुरोध मुझे बिल्कुल स्वीकार नहीं।
तुम्हारी संतान को सुखी करने ही, धरा पर आईं हूँ और उन्हें वरदान दिए बिना नहीं जाऊॅंगी। इतना कहकर लक्ष्मी जी ने अपना रथ, धरती संतान, अपने भक्तों की ओर बढ़ा दिया। जो जीवन के सुख, समृद्धि, आनंद पाने के लिए , माता का वरदान पाने के लिए , उनकी पूजा अर्चना में लीन थे।
लक्ष्मी जी जिस राह से भी निकली, वहाँ वरदानों की, सुख समृद्धि, धन धान्य की वर्षा करती चलीं जातीं। देखते ही देखते धरा पर चारों ओर खुशहाली छा गई, लोंगो के घर सोने चाॅंदी से भर गए। धरा की संताने अपने भाग्य को सराहते हुए लक्ष्मी जी को धन्यवाद देने लगीं और आनंदित हो अपनी सुख सम्द्धि का उत्सव मनाने लगीं।
विपुल धन पाकर विलासिता के साधन खरीदने लगीं। बिना श्रम के सभी कुछ उपलब्ध था तो श्रम की ओर कौन ध्यान देता। समय बीता, मौसम बदला, वर्षा आई , खेतों में बीज बोने समय आया पर कोई खेत जोतने नहीं गया और जाएँ भी क्यों अब तो लक्ष्मी जी का वरदान प्राप्त हो गया था सभी को। किसी को भी आमोद प्रमोद से फुरसत नहीं थी।
न कोई खेतों में गया, ना खेत जुते, ना बीज ही बोया गया फिर पेट की क्षुधा शांत करने हेतु अनाज कहाँ से कैसे प्राप्त हो ? धरा की आँखों में आँसू आ गए, उसकी परिश्रमी संतान विलसिता में डूबकर अंधी हो चुकी थी। किसी को इस बात की सुध नहीं थी कि सोने चाँदी से पेट नहीं भरता और जो अन्न भंडारों में है वह कभी तो समाप्त होगा।
वह समय भी आया जब भंडारों से अन्न की इतिश्री होने लगी, मनुष्य को होश तब आया जब भूखे मरने की नौबत आ गई। सभी अपना अपना सोना चाँदी लेकर इधर-उधर भटकने लगे कि धन दौलत के बदले कहीं से अन्न की प्राप्ति हो जाए पर अन्न तो तब मिले जब किसी ने बीज बोएँ हो, परिश्रम किया हो। चारों ओर सभी के पास केवल सोना
चँादी था, सभी को अन्न की तलाष थी। अकाल ने विकराल रूप कर लिया, लोग सोना, चाँदी लिए क्षृधार्थ तड़प तड़प कर मर रहे थे।
धरती बेचैन थी, अपनी संतान का दुखद अंत देखकर उसने अपनी, बची हुई जीवित संतान को समझाया – आकस्मिक लाभ, बिना मेहनत के धन का वरदान वास्तव में अभिशाप और स्वयं द्वार तक चलकर आया दुर्भाग्य है। ऐसे लाभ और वरदान को स्वीकारने का परिणाम तुम सबके सामने है।
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