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Inderdhanush, Laghu katha Sangreh – Part 3

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Inderdhanush

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                                                   इंद्रधनुष:लघुकथा संग्रह -भाग तीन 

 

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                                                                     महत्त्व

                    एक दिन एक कुटिल गीदड़ एक गड्ढे में गिर गया।गीदड़ ने बहुत दिमाग लगाया, उछल कूद की, मदद के लिए शोर भी मचाया पर सफलता हासिल ना कर सका। सारे यत्न करके हताश हो चुका था और अब उसे इसी गडढे में अपना अंत नज़र आ रहा था पर उसी समय उसे उम्मीद की एक किरण दिखाई दी।

एक छोटा सा बकरी का बच्चा मिमियाते हुए वha से गुज़्ार रहा था। बकरी के बच्चे को देखकर उसके मन में कुटिलता जाग गई और उसने बकरी के बच्चे को लालच देते हुए कहा, भाई तुम भूखे लग रहे हो, देखो यहाॅं इस गड्ढे में बहुत सारी हरी हरी , मुलायम घास है और मीठा मीइा पानी भी है।

तुम यहाॅं नीचे आ जाओ तो तुम्हारा भी पेट भर जाए। बकरी का सीधा सादा बच्चा उसकी कुटिलता भरी लुभावनी बातों में आ गया और गड्ढे में कूद गया।

         धूर्त गीदड़  बकरी की पीठ पर चढ़कर गड्ढे से बाहर कूद गया और हॅंस कर बोला – तुम बहुत मूर्ख हो, मेरी मीठी मीठी बातों में आ गईं और गड्ढे में कूद गईं, मैंने तो अपनी जान बचाने के लिए तुम्हें बेवकूफ बनाया और तुम मुझे बचाने और खुद मरने के लिए यहाँ फ़ँस गईं।

बकरी ने बड़ी सहजता, सरलता से मुस्कुराकर जवाब दिया- मैं अपने इस कार्य से ज़रा भी दुखी नहीं हूँ  मेरा यह जीवन किसी प्राणी की जान बचाने में काम आया, मेरा तो जीवन धन्य हो गया। परोपकार में जान जाए इससे बड़ा पुण्य तो कुछ और हो ही नहीं सकता।

तुम और तुम्हारा जीवन किसी के काम का नहीं है इसलिए तुम्हें तो इस गड्ढे से कोई भी बाहर नहीं निकालता। मेरी चिंता तुम ना ही करो तो अच्छा है क्योंकि उपयोगितावष मुझे तो कोई ना कोई इस गड्ढे से निकाल ही लेगा। परोपकार करने वाले को किसी से भी, किसी तरह का कोई भय नहीं होता।

 

                                                      सयाना कंजूस

                   एक गुरु ने अपने शिष्य की गुरु भक्ति से प्रसन्न होकर उसे तीन दिन के लिए पारसमणि दी और कहा कि इस मणि के स्पर्श से तुम अपना दारिद्रय दूर कर सकते हो, इसके स्पर्श से लोहा भी सोने में परिवर्तित हो जाता हैं। तीन दिन में तुम जितना चाहे उतना सोना बना सकते हो। यह पारसमणि तीन दिन के लिए तुम्हारे पास है, तीन दिन के बाद तुमसे वापिस ले ली जाएगी।

     शिष्य बहुत कंजूस था इसलिए पारसमणि पाकर शिष्य बहुत खुश हुआ और सोचने लगा कि अब उसका सारा दारिद्रय दूर हो जाएगा और उसके पास मनचाहा सोना होगा। अब उसे तलाष थी लोहे की, सस्ते लोहे की। कई्र दुकानों पर गया पर उसे लगा किसी दुकान पर लोहा बहुत  महँगा है और किसी दुकान पर लोहा बहुत कम है।

शिष्य चाहता था कि लोहा बहुत सस्ता हो ताकि वह बहुत सारा लोहा खरीदकर, पारसमणि के स्पर्श से उस लोहे को सोने में परिवर्तित कर पाए।

बहुत सारा और सस्ता लोहा ढूँढने के लालच में वह नगर नगर भटकता रहा पर वह बहुत ज़्यादा कंजूस था इसलिए उसे सुतुष्टि नहीं हो रही थी और इसी भाग दौड़ मे दो दिन बीत गए, केवल एक दिन बाकि बचा था उसे अभी भी सस्ते लोहे की तलाश थी। वास्तव में अधिक सयाने बनने वाले और कंजूस व्यक्ति सदैव घाटे में ही रहते है।

 

                                                     ज्ञान और बुद्धिमता

    रोहन और समीर की दोस्ती बहुत पुरानी थी हालांकि दोनों की आदतों रहन-सहन और व्यवहार में ज़मीन आसमान का अंतर था। रोहन मध्यम वर्गीय परिवार का सीधा – सादा युवक था और समीर धन संपन्न परिवार से था।

समीर ने अपनी पढ़ाई षहर के सबसे बड़े और नामी स्कूल से पूरी की थी और ग्रेजुएषन भी लंदन से की थी परंतु रोहन ने साधरण से स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली के एक छोटे से प्राइवेट काॅलेज से पढ़ाई पूरी की।

गुड़गाँव की एक बड़ी कंपनी में इंटरव्यू था। दोनों दोस्तों ने इंटरव्यू दिया और दोनों का ही सलैक्शन भी हो गया। बचपन के दोस्त एक ही कंपनी में साथ साथ काम करके बहुत खुश थे।

कंपनी के डायरेक्टर रोहन के काम से प्रसन्न होकर उसे दो प्रमोशन दे चुके थे। समीर इस बात को लेकर बहुत परेशान था कि वह हर दृश्टि से रोहन से अच्छा है, स्मार्ट भी है, तरक्की उसे ही मिलनी चाहिए थी।

इसी कशमकश में वह डायरेक्टर मनमोहन जी के पास गया और पूछा, ˝सर मुझे रोहन से कम क्यों समझा जा रहा है जबकि मैं रोहन से ज़यादा क्वालीफ़ाइड हूँ ।˝

˝ किताबें पढ़कर और लेक्चर सुनकर ज्ञान अजि़त किया जा सकता है पर बुद्धिमता और विवेक उस किताब से अर्जित होती है जो तुम स्वयं हो और ये ज्ञान तुम्हारे पास नहीं रोहन के पास है, उसने ज़िंदगी का किताब को बहुत गहन अध्ययन किया है। अपने आत्मज्ञान की पुस्तक को पढ़ना आसान काम नहीं है, हर दिन, हर क्षण इस पुस्तक का नवीन संस्करण प्रकाशित होता है।˝

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                                                    विवेक और परिश्रम

              सी. जे. कंपनी के सी.ई.ओ.हरप्रीत सिंह जी ने ब्रांच मैनेजर से कंपनी की मासिक रिर्पोट माँगी। रिपोर्ट कुछ इस प्रकार थी, ˝ जैसा कि आप देख रहे हैं सर कि पूरी रिपोर्ट सकारात्मक है, सिर्फ एक के अतिरिक्त।

वह व्यक्ति जो नीचे के हाॅल में बैठता है, जब भी मैं वहाँ से गुजरता हूँ उसे खाली बैठे देखता हूँ और वह हमेशा मेज पर पैर रखे बैठा रहता है, वह आपका पैसा नष्ट कर रहा है।

हरप्रीत सिंह जी ने जवाब दिया, ‘एक समय था जब कंपनी डूब रही थी तब इसी आदमी ने अपनी अद्भुत सूझबूझ से इस डूबती हुई कंपनी को किनारे लगाया था और उसी के सुझाव व मार्ग दर्शन का परिणाम है कि आज भाग्यलक्ष्मी हमारे दृवार पर टिकी है। मेरे ख्याल से उसके पैर वहीं होने चाहिए, जहाँ हैं।‘

   आज इस आधुनिक युग को जिस रूप में हम देख रहे हैं, वह कल्पना और सोच का ही परिणाम हैं। एक आधुनिक कहावत है,’चतुराई से काम करो, परिश्रमशीलता से नहीं, चतुर बनों, श्रमसाध्य नहीं। अगर चतुराई से काम करना चाहते हो तो विवेक संकाय का उपयोग करो।

बहुत कम लोग विवेक का सहारा लेते हैं, केवल वही व्यक्ति उचित परिणाम देते हैं जो विवेक का प्रयोग करते है।

 

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