Udan , Laghu katha Sangreh – Part 1
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मासूम
गणेश चतुर्थी का दिन था, गोमती चाची ने बड़े प्यार और मेहनत से पूजा के लिए मोदक बनाए थे। चाची को पूरा विश्वास था कि हमेशा मिठाई चुराने वाला उसका बेटा विष्णु मोदक चुराए बिना रह नहीं पाएगा इसलिए मोदक के थाल की चैकीदारी भी स्वयं ही कर रही थी पर विष्णु भी मिठाई चुराने की कला पूर्णतः निपुण था।
चाची की नज़र बचते ही विष्णु ने दो मोदक चुरा ही लिए। अपनी विजय पर बहुत गर्व हो रहा था विष्णु को, पहले तो सुंदर, सुगंधित , सुडौल मोदक को प्यार भरी से नज़रों से निहारा फिर मुँह में रखकर, आँखे बंद करके पूरे स्वाद के साथ, रस ले-ले लेकर एक-एक लड्डू खाया।
अंतिम लड्डू हाथ में ही था कि गोमती ने विष्णु को पकड़ लिया और कान पकड़ा , खीचकर उसे लंबोदर के सामने ले गईं और पूछा,˝ तुम्हें पता है जब तुम मोदक चुरा रहे थे तब गणपति भी वहाँ मौज़ूद थे ।˝
˝हाँ˝ विष्णु ने जवाब दिया।
˝और वह हर समय तुम्हें देखते रहते हैं˝
˝हाँ˝ विष्णु ने फिर से जवाब दिया।
˝और तुमसे उन्होंने क्या कहा ?˝
˝प्रभु ने कहा, तुम्हारे और मेरे अतिरिक्त यहाँ और कोई नहीं है इसलिए दो मोदक ले लो ।˝”
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दृष्टिकोंण
बाबा ब्रजनाथ जमना गाँव के बड़े मंदिर के सबसे वृद्ध और समझदार पुजारी थे। किसी के बारे में ना तो बुरा सोचते थे और ना ही किसी का बुरा करते थे।
नवरात्रों के दिन थे , मंदिर में पूजा -पाठ, हवन , कीर्तन का माहौल था तभी नवयुवकों का एक समूह मंदिर के प्रांगण में आाकर हुड़दंग मचाने लगा।
बाबा ब्रजनाथ ने हैरत से उन्हें देखा, उनकेा हाथ में मदिरा की बोतल थी उनमें में से एक नवयुवक ने मुस्कुराकर बाबा की ओर देखा और बोला ,”बाबा आप क्षुब्ध तो नहीं हो ?”
बाबा ने कहा , “मुझे लगता है तुम गलती से यहाँ आ गए हो, तुम शायद भूल गए हो कि यह मंदिर का प्रांगण है और नवरात्र भी हैं।“
“नहीं मुझे अच्छी तरह याद है।“
“तुम दिमाग से रुग्ण हो और डॉक्टर ही तुम्हे इस रुग्णता व पाप से मुक्ति दिलवा सकता है।”
“नहीं मैं बिल्कुल स्वस्थ हूँ बाबा।“ नवयुवक ने कुटिलता भरी मुस्कान से कहा।
बाबा ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए और कहा,”हे प्रभु आजकल की इस नई युवा पीढ़ी को सदबुद्धि दीजिए, यह नई पीढ़ी कल की राष्ट्रनिर्माता है और ये क्या उदाहरण प्रस्तुत कर रही है अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए । झूठ बोलकर एक और पाप करने से अपनी गलती स्वीकार कर लेना ठीक है, इन्हें यह बात समझ आए, यही मेरी प्रार्थना है प्रभु।”
नवयुवक को अपनी कुटिलता पर शर्मिंदगी महसूस हुई, उसने अपनी गलती , अपना झूठ स्वीकार और बाबा के चरण पकड़ लिए।
बाबा ने कहा ,”हम जितने धार्मिक होंगे , उतने ही सकारात्मक भी होंगे।”
वास्तव में अगर हमारी प्रतिक्रिया सकारात्मक होगी तो हमारा व्यक्तित्व स्वयं सकारात्मक होता जाएगा। दूसरी ओर यदि प्रतिक्रिया नकारात्मक होगी तो हम समस्याओं में फॅंसते चले जाएँगे।
सकारात्मक दृश्टिकोंण वाले व्यक्ति को चारों ओर हरियाली ही हरियाली नज़र आती है, प्रकाश ही प्रकाश नज़र आता है और इसके विपरीत नकारात्मक दृष्टिकोंण वाले व्यक्ति को चारों ओर अंधकार के सिवाय कुछ नज़र नहीं आता।
ईश्वर से मुलाकात
प्राचीन समय की बात है मुरादाबाद जिले के एक छोटे से गाँव जमना के बड़े बाज़ार में एक छोटे से मंदिर की स्थापना हुई।
मंदिर की मान्यता बढ़ी और आस पास के गााँव बसेड़ा, रामपुर, कुमखिया, बागड़पुर के भक्त भी जमना आने लगे। मंदिर के महंत शंभुनाथ जी के प्रति भी भक्तों की पूरी आस्था थी।
नवरात्र में महंत जी पूरे नौ दिन का व्रत रखते थे। नवरात्र के दिन थे, भक्तों ने ध्यान दिया कि शंभुनाथ जी प्रतिदिन शाम को छह बजे कहीं गायब हो जाते हैं।
जमना सहित आस पास के सभी गाँव में तरह तरह की अफवाहें उड़ने लगीं लेकिन सभी को विश्वास था कि शंभुनाथ जी कोई गलत काम नहीं कर सकते।बड़े बाज़ार के पीपल के पेड़ के नीचे सभी भक्त एकत्रित हुए और चर्चा करने लगे कि आखिर शंभुनाथ जी जाते कहाँ हैं ?
चर्चा के अंत में निष्कर्ष यह निकला कि प्रतिदिन शाम को छह बजे शंभुनाथ जी अवश्य ही अकेले में ईश्वर से मुलाकात करते हैं।
भक्तों की जिज्ञासा बढ़ी , ईश्वर से मिलने का लालच भी मन में आ गया, सभी ने कहा कि पूजा-पाठ, हवन, व्रत, भंडारा तो सभी करते हैं फिर शंभुनाथ जी ईश्वर से अकेले ही क्यों मिलें,
हम सभी ईश्वर के दर्शन के हकदार हैं अतः ईश्वर के दर्शन सभी को होने चाहिए परंतु शांभुनाथ जी के सामने बोलने का, उनसे प्रश्न करने का साहस किसी में भी नहीं था। इसलिए निश्चय किया गया कि जासूसी के द्वारा पता लगाया जाए कि महंत जी कब और कहाँ मिलते हैं ईश्वर से।
कुछ भक्तों को महंत जी की जासूसी का कार्य सौंपा गया। एक दिन एक भक्त सारा दिन महंत जी के पीछे लगा रहा।
उसने देखा साढ़े पाँच बजे महंत जी अपनी कुटिया में गए उन्होने अपने भगवा वस्त्र उतारकर साधारण मैले कुचैले वस्त्र धारण किए ,एक थैले में कुछ भरा और थैला कंधे पर लटकाकर कुमखिया की ओर चल दिए।
शंभुनाथ जी आगे-आगे और भक्त छिपता-छिपाता शंभुनाथ जी के पीछे। कुमखिया के बाहर, अछूतों की बस्ती में एक गंदी , टूटी हुई झोंपड़ी के बाहर शंभुनाथ जी रूके, सावधानी पूर्वक इधर उधर देखा और संतुष्ट होकर झोंपड़ी के अंदर चले गए।
कुटिया इतनी जर्जर अवस्था में थी कि भक्त को ज़रा भी प्रयास नहीं करना पड़ा, कुटिया में चारों ओर झरोखे ही झरोखें थे। भक्त ने अंदर झाँककर देखा तो सन्न रह गया, उसके पैर जैसे ज़मीन से चिपक गए और आँखों से झर-झर अश्रु बहने लगे।
झोंपड़ी के अंदर एक अपंग बूढ़ी स्त्री लेटी हुई थी। शंभुनाथ जी ने पहले झाड़ू उठाई और झोंपड़ी की सफाई की, हाथ धोए, झोले से खाना निकालकर उस बुढ़ी स्त्री को खाना खिलाया।
आँखों में आँसू भरकर भक्त जमना लौटा, सभी भक्त मंदिर के बाहर ,बड़े बाज़ार के बड़े से पीपल के पेड़ के नीचे उसका इंतज़ार कर रहे थे। सबने एक सुर में पूछा, ‘‘शंभुनाथ जी कहाँ जाते हैं , क्या प्रतिदिन शाम को ईश्वर से मिलने स्वर्ग
जाते हैं ?’’
“नहीं स्वर्ग से भी ऊँंची जगह है, जहाँ शंभुनाथ जी जाते हैं।”आँखों में अश्रु लिए रूंघे गले से भक्त ने जवाब दिया।
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