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kahani – Teacher , क़हानी – टीचर

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May You Like –Audio – Kahani Teacher

 आज टिचर्स डे है और मैं एक टीचर हूँ इसीलिए आज मैं बात करूँगी टीचर्स डे की और कहानी सुनाऊँगी अपनी पहली जॉब की, अपने एक स्टूडेंट रौनक की। सन् 1990-91 मेरी पहली जॉब, रौनक से मेरी पहली मुलाकात और अब सन् 2019 आज भी मैं रौनक को अपनी क्लास में बैठा पाती हूँ। रौनक ने मुझे एहसास दिलवाया कि टीचर, सिर्फ टीचर नहीं होती, माँ भी होती है। अगर टीचर्स, माँ का रोल अदा करने में सक्षम हों, तो क्लास रूम की लास्ट बेंच पर बैठा कमज़ोर रौनक भी एक दिन डॉक्टर रौनक सूद बनने में सक्षम हो जाता है, सिर्फ और सिर्फ अपनी टीचर्स के कारण। आइए मिलते हैं क्लास रूम की लास्ट बेंच पर बैठने वाले रौनक सूद से।  

कुछ दिन पहले मुझे शादी का एक कार्ड मिला लड़का और लड़की दोनों के नाम जाने पहचाने से लगे पर याद नहीं आ रहा था कि मैं कैसे जानती हूँ उन्हें। शादी में जाने का कोई इरादा नहीं था पर शादी वाले दिन अचानक सुबह एक अनजान  नंबर से कॉल आई, ‘गुड मॉर्निंग माम् आज शादी में आ रही है ना आप।’

‘मैंने पहचाना नहीं, कौन हैं आप?’ मैंने धीमे से पूछा।

‘मैम मैं रौनक सैशन 1990-91, रूम नंबर 217, क्लास नाइन, राइट साइड विंडो के साथ वाली लास्ट बेंच पर बैठने वाला रौनक।’

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‘रौनक, रौनक सूद, हाँ याद है बेटा मैं तुम्हें कैसे भूल सकती हूँ, तुम तो अब मेरी क्लास रूम तक पहुँच गए हो। मैं अक्सर अपने स्टूडेंट्स को तुम्हारी बातें बताती हूँ।’

‘मैम आ रहीं हैं न आप, मुझे आपका इंतजार रहेगा आपका। आपके लिए एक और सरप्राइज़ है, आप आइएगा ज़रूर।’

रात को जब मैं शादी में पहुँची, गेट पर दो नौजवान खड़े थे। मुझे देखते ही स्वागत के लिए आगे बढ़े हैं। मैं हैरान थी, मेरे पास आते ही उन्होंने कहा, ,गुड इवनिंग मैम, हम आपके लिए ही यहाँ खड़े थे, आइए।’

‘आप मुझे कैसे जानते हैं?’

‘आपका ये गोल्डन पर्स और ये सफेद फूलों वाला गजरा, आप रौनक की मधु मैम है ना।’ मेरी आँखें छलकने के लिए तैयार थीं, आँसुओं पर काबू कर मुस्कुराते हुए आगे बढ़ीं। जयमाला के लिए स्टेज पर खड़ा था रौनक, मुझे देखते ही नीचे उतर आया। मेरे पैर छुए और गले मिलने जी इजाज़त माँगी, मैं अपने आपको रोक नहीं पाईं और आगे बढ़कर रौनक़ को गले लगा लिया। तभी मेरी नज़र सलोनी पर पड़ी। ‘

सलोनी’ सलोनी मुस्कुराई।

‘जी मैम’

रौनक़ ने फटाफट आगे आकर कहा, ‘मैंम यही है सरप्राइज़, मेरी शादी सलोनी से ही हो रही है।’

‘अरे कितना झगड़ते तुम दोनों और ये सलोनी कितना मज़ाक उड़ाती थी तुम्हारा।’

सलोनी की आंखें छलक आईं। ‘जी मैम, हमारा वो झगड़ा कब प्यार में बदल गया का, रौनक़ का दर्द अपना-सा लगने लगा, पता ही नहीं चला।’

तभी रौनक ने बात काटते हुए कहा, ‘मैम  आपके बिना मैं शादी की सोच भी नहीं सकता था।’

सलोनी के साथ रौनक फेरों के लिए बैठा तो गठबंधन के लिए पंडित जी ने लड़के की माँ को बुलाया। रौनक ने मेरी ओर देखा, उसकी आँखों में मूक निमंत्रण था।

‘मैम आप हमारा गठबंधन करिए ना।’

मैंने गठबंधन किया और अतीत की गलियों में खो गई। बी एड करने के बाद मेरी पहली जॉब क़रोल बाग के एक स्कूल में लगी। मैं खुश थी, मुझे नौवीं कक्षा की क्लास टीचर बनाया गया था, तीस बच्चे थे मेरे क्लास और रौनक़ उन्हीं में से एक था । पहली बार जब मैंने रौनक को देखा था तब वह राइट साइड पर खिड़की के पास वाली लास्ट बैंच पर बैठा हुआ था। मुरझाया हुआ, डरा-सा,दुबला  -पतला रौनक़। बहुत ही साधारण सा दिखने वाला स्टूडेंट था, क्लास के सभी बच्चे अमीर घरों से थे और रौनक़ मिडल क्लास घर से था, इसका अंदाजा मैंने एक ही सप्ताह में लगा लिया था। देखने में जितना कमज़ोर था रौनक़, पढ़ने में उससे भी ज्यादा कमज़ोर। इंग्लिश तो ठीक से बोल भी नहीं पता था, इंग्लिश को हमेशा इंग्लिस और स्कूल को हमेशा इस इस्कूल कहता था। ऐसे-ऐसे शब्द बोलता था कि पूरी क्लास हँसे बिना रह नहीं पाती थी। मैं क़रीब -क़रीब रोज़ ही डाँटती उसे क्योंकि कभी भी उसका काम पूरा नहीं होता था। यूनिफ़ॉर्म प्रैस नहीं होती, खाने का नाम पर बिस्किट या सूखी ब्रैड लता था। फिर टीचर्स डे आया मेरी नौकरी का पहला साल, मेरे टीचर बनने के बाद पहला टीचर्स डे। मैं बहुत एक्साइटेड थी सभी बच्चे मेरे लिए कार्ड के साथ कुछ ना कुछ लाए और सभी के गिफ्ट्स के साथ उनकी अमीरी झलक रही थी। सबसे पीछे खड़ा रौनक अपने हाथों को पीछे किए कुछ छिपाने की कोशिश कर रहा था। सबने अपने-अपने कार्ड्स, गिफ़्ट दिए और अपनी-अपनी सीट पर जाकर बैठ गए। रौनक जहाँ खड़ा था, वहीं खड़ा रहा, जैसे उसके पैर जमीन से चिपक गए हों। सब बच्चे हँस रहे थे, मजाक उड़ा रहे थे उसका।

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‘मैम देखिए न रॉनी को, ये भी कुछ लाया है, गिफ़्ट रैप भी अच्छी तरह नहीं कर पाया। पेपर देखिए, कितना गंदा है। न्यूज़ पेपर में ही लपेट लाया।’

दूसरा बोला, ‘इसमें है क्या है रॉनी हम भी देखें’

‘रौनक गिफ़्ट देना जरूरी नहीं था बेटा, आप पढ़ लो काम पूरा कर लो, पास हो जाओ, यही मेरे लिए सबसे बड़ा गिफ़्ट है।’ रौनक सहमता हुआ, धीरे से मेरे पास आया और अपने हाथों में छिपाया हुआ गिफ़्ट मेरे हाथों में दे दिया। मैंने लापरवाही से वो गिफ़्ट एक तरफ रखकर उसे बैंच पर बैठने का इशारा किया। ब्रेक में सब बच्चे खाना खा रहे थे और रौनक़ चुपचाप खामोश बैठ था।

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पूछा तो उसने कहा,’मैम आज खाने का मन नहीं था इसलिए खाना नहीं लाया।’ अगले दिन शनिवार था, बच्चो की छुट्टी थी। ड्रॉर में रखे बच्चों के गिफ्ट खोले तो देखा बहुत प्यारे प्यारे रंग बिरंगे पैन थे। अंत में रौनक़ का गिफ़्ट खोला तो देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गईं, उसमें एक पुराना गोल्डन पर्स और एक पुराना सब गजरा था। अगले दो दिनों तक रौनक़ स्कूल नहीं आया,तीसरे दिन जब वह आया तो पहले से भी ज़्यादा मुर्झाया हुआ, पहले से भी ज्यादा चुप। मैंने उसे अपने पास बुलाया और कहा, ‘रौनक तुम्हे गिफ़्ट देने की जरूरत नहीं थी, देने के लिए कुछ नहीं था तुमने मुझे पुराना पर्स और पुराना गजरा क्यों दिया बेटा।‘ रौनक़ की आँखों से टप -टप आँसू बहने लगे, ‘मैम ये पर्स और गजरा मेरी माँ पर माँ मर चुकी है और आप मेरे लिए बिल्कुल माँ की तरह हैं, आप माँ की तरह ही डाँटती हैं और पढ़ने के लिए भी कहती हैं। मुझे आप में माँ नजर आती है इसलिए मैंने माँ का पर्स और गजरा आपको दे दिया।’

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रौनक की बातें सुनकर मैं घंटों तक दिल ही दिल में रोती रही और साहस बटोरकर शाम को रौनक के घर गई, उसके बाबा से बात की तो पता चला पिछले दो साल से, रौनक की माँ कैंसर से लड़ रही थीं और रौनक पल पल अपनी माँ को मरते हुए देख रहा था। घर लौटकर आई तो महसूस हुआ कि मैं रौनक की  अपराधी हूँ। कोने में बैठा उदास, दुबला-पतला रौनक, उसका अधूरा काम, उसकी  बिना प्रेस की यूनिफॉर्म, उसके टिफ़िन में सूखी ब्रैड या बिस्किट, इस सब का कारण जानने के बाद मैं बहुत तक मैं घंटों तक रोती रही। टीचर्स डे पर दिया उसका गोल्डन पर्स और गजरा हाथ में लिए मैं घंटों तक रोटी रही। अनजाने में मुझसे जो अपराध हुआ था, उस अपराध भाव से मुक्ति पाने के लिए मैंने लाख  जतन किए। उसके लिए रोज़ टिफिन लेकर जाती ,उसका होमवर्क पूरा करवाने की  रिस्पॉन्सिबिलिटी भी मैंने ले ली थी। दसवीं के बाद रौनक अपने पिता के साथ दूसरे शहर चला गया। 1990 से 2019 तक इन 29 सालों में मैंने, हर साल अपनी क्लास में राइट साइड में विंडो के पास वाली आख़िरी बैंच पर हमेशा रौनक को बैठे पाया है।1990 में रौनक को पहचान नहीं पाई थी मैं लेकिन अब हर नए सेशन में पहली क्लास में ही मेरी कोशिश ये रहती है की मैं पहली ही नज़र में रौनक को पहचान पाऊँ और जो हेल्प उसे मुझसे चाहिए वह मैं उसे दे पाऊँ। रौनक की आँखों में रोज़ एक रिक्वेस्ट होती थी, प्लीज़ हेल्प मी मैम, प्लीज़ हेल्प मी। टीचर्स ध्यान दें कि हर क्लास रूम में एक नहीं, कई रौनक होते हैं। उनकी आँखों की मूक रिक्वेस्ट को समझें, उनकी हेल्प करें। टीचर्स की ज़रा-सी हेल्प, ज़रा सी केयर, एक साधारण रौनक को, डॉक्टर रौनक सूद बना सकती है।  

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