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Class 6, हिंदी, मल्हार, 3.कविता -पहली बूँद, शब्दार्थ व व्याख्या

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बूँद

बूँद

                                                    पहली बूँद

                                      कवि – गोपालकृष्ण कौल

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वह पावस का प्रथम दिवस जब,

पहली बूँद धरा पर आयी।

अंकुर, फूट पड़ा धरती से,

नव जीवन की ले अंगड़ाई।

 

धरती के सूखे अधरों पर,

गिरी बूँद अमृत-सी आकर।

वसुंधरा की रोमावली-सी ,

हरि बूँद पुल की मुस्कराई।

पहली बूँद धरा पर आई।

 

शब्दार्थ –

पावस – वर्षा ऋतु                    धारा – धरती

 अंकुर – बीज का फूटना               नव – नया

अंगड़ाई – शरीर को तानना या अकड़ना   अधर- होंठ

वसुंधरा – धरती                    रोमावली-सी – रोमों की पंक्ति की तरह

दूब – एक प्रकार की घास             पुलकी – जिसे रोमांच हुआ।

 

भावार्थ –

   प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि गोपालकृष्ण कौल जी के द्वारा रचित कविता ‘पहली बूँद’ से ली गई है। यहाँ वर्षा ऋतु के आगमन पर धरती में आए परिवर्तन के सौंदर्य का वर्णन किया गया है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु के आगमन से चारों तरफ आनंद रूपी हरियाली फैली है। वर्षा की पहली बूँद जब धरती पर आती है तो धरती के अंदर छिपे बीज में से अंकुर फूट कर बाहर निकल आता है। मानो वह बीज नया जीवन पाकर अंगड़ाई लेकर जाग गया है।

  कवि कहते हैं कि धरती के सूखे होठों पर बारिश की बूँद अमृत के समान गिरी, मानो वर्षा होने से बेजान और सूखी बूढ़ी धरती को नया जीवन ही मिल गया हो। जब धरती पर पहली बूँद गिरी तो मानो धरती का रोम-रोम खिल उठा और घास रोमांच से भर कर हरी-भरी हो गई और मुसकानें लगे।

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आसमान में उड़ता सागर,

लगा बिजलियों के स्वर्णिम पर।

बजार नगाड़े जगा रहे हैं ,

बादल धरती के तरुणाई।

पहली बूँद धरा पर आई।

 

शब्दार्थ-

स्वर्णिम- सुनहरे                       पर – पंख

नगाड़े – एक प्रकार का वाद्ययंत्र           तरुणाई – यौवनता।

 

भावार्थ –

 प्रस्तुत पंक्तियाँ गोपालकृष्णा कौल जी के द्वारा रचित कविता पहली बूँद से ली गई है। यहाँ वर्षा ऋतु के आगमन पर धरती में आए परिवर्तन के सौंदर्य का वर्णन किया गया है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि आसमान में जल रूपी बादलों में बिजली चमक रही है जैसे सागर बिजलियों के सुनहरे पंख लगाकर आसमान में उड़ रहा हो। बादलों का गर्जन सुनकर ऐसा लगता है कि वे नगाड़े बजा-बजाकर धरती की यौवनता को जगा रहे हैं। पहली बूँद कुछ इस तरह धरती पर आई, जिसका खूबसूरत एहसास और परिणाम धरती को मिला।

 

नीले नयनों-सा यह अंबर,

काली पुतली से यह जलधर।

करुणा विगलित अश्रु बहाकर,

धरती की चिर-प्यास बुझाई।

बूढ़ी धरती शस्य-श्यामला,

बनने को फिर से ललचाई।

पहली बूँद धरा पर आई।

 

शब्दार्थ-  

नयन – आँख, नेत्र                चीर प्यास – बहुत दिनों की प्यास    

अंबर – आकाश                   विगलित – दुखों से दुखित होकर पिघली हुई   

जलधर – बादल, करुणा            शस्य-श्यामला – हरी -भरी।

              

भावार्थ –

   प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि गोपालकृष्ण कौल जी के द्वारा रचित कविता ‘पहली बूँद’ से  ली गई है। इसमें वर्षा ऋतु के आगमन पर धरती में आए परिवर्तन के सौंदर्य का वर्णन किया गया है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि नीला आसमान नीली आँखों के समान है और काले बादल उन नीली-नीली आँखों की काली पुतली के समान। मानो बादल धरती के दुखों से दुखी होकर वर्षा रूपी आँसू बहा रहा हो। इस प्रकार धरती की प्यास बुझ जाती है। वर्षा रूपी प्रेम पाकर धरती के मन में फिर से हरा-भरा होने की इच्छा जाग उठी हैं। पहली बूँद कुछ इस तरह धरती पर आई जिससे पूरी धरती खूबसूरत होकर खिल उठी।

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