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Chetak Ki Veerta, Explanation, Malhar, Class 6,चेतक की वीरता

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रण-बीच चौकड़ी भर-भरकर
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से
पड़ गया हवा को पाला था।
गिरता न कभी चेतक-तन पर
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर
या आसमान पर घोड़ा था।

 

शब्दार्थ
रण – युद्ध                             चौकड़ी भर-भरकर – छलाँग लगाकर

निराला – विशेष                    पाला  प्रतियोगिता
तन – शरीर                           कोड़ा – चाबुक
अरि – शत्रु                             मस्तक – माथा

 

व्याख्या  प्रस्तुत काव्यांश में कवि राणा प्रताप के घोड़े चेतक की वीरता का गुणगान करते हुए बताता है कि महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक युद्धभूमि में चौकड़ी भरकर अर्थात छलाँगे मारकर सबसे विशेष बन गया था। अर्थात चेतक युद्धभूमि में सबसे विशेष प्रदर्शन कर रहा था जिस कारण वह सबसे अनोखा घोड़ा प्रतीत हो रहा था। चेतक इतनी तेज दौड़ लगाता था कि लगता था जैसे उसकी हवा के साथ प्रतियोगिता हो रही हो। अर्थात वह हवा से भी तेज दौड़ता था। चेतक के शरीर पर कभी भी राणा प्रताप का चाबुक नहीं पड़ता था क्योंकि वह सदैव सावधान रहता था और अपने स्वामी की आज्ञा को भली भाँति समझता था जिस कारण राणा प्रताप को कभी उसके शरीर पर चाबुक मारने की नौबत ही नहीं आती थी। चेतक को दौड़ता हुआ देखकर ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह शत्रुओं के मस्तक पर दौड़ लगा रहा हो। वह आसमान का घोड़ा प्रतीत होता था। कहने का आशय यह है कि चेतक शत्रुओं के सिर पर से ऐसे एक छोर से दूसरे छोर तक ऐसे दौड़ता था मानो वह आसमान में दौड़ लगा रहा हो। अर्थात वह इतना तेज़ दौड़ता था कि कोई भी उसका मुकाबला नहीं कर पता था।

 

जो तनिक हवा से बाग हिली
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं
तब तक चेतक मुड़ जाता था।
कौशल दिखलाया चालों में
उड़ गया भयानक भालों में।
निर्भीक गया वह ढालों में
सरपट दौड़ा करवालों में।

 

शब्दार्थ
तनिक – जरा सा, थोडा                               बाग लगाम
सवार – वह जो घोड़े पर चढ़ा हो               पुतली – आँख का काल भाग
फिरी – घूमना                                            कौशल -कुशलता
भाला – एक शस्त्र                                        निर्भीक – निडर
ढाल – हथियार का वार रोकने वाला अस्त्र   करवाल – तलवार
सरपट – घोड़े के भागने की बहुत तेज़ गति
 

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व्याख्या – प्रस्तुत काव्यांश में कवि राणा प्रताप के घोड़े चेतक की वीरता का गुणगान करते हुए बताता है कि यदि थोड़ी सी भी हवा से उसकी लगाम हिल जाती थी तो वह इसे अपने ऊपर बैठे सवार अर्थात राणा प्रताप का इशारा समझकर उन्हें हवा में ले उड़ता था। कहने का आशय यह है कि हवा के कारण लगाम के हिलने को चेतक राणा प्रताप का इशारा समझता था और हवा से भी तेज़ दौड़ लगाना शुरू कर देता था। चेतक इतना समझदार था कि राणा प्रताप की आँख की पुतली के घूमने को उनका इशारा समझकर मुड़ जाता था। राणा प्रताप का घोड़ा चेतक युद्धभूमि में अपनी चाल के हुनर का परिचय देते हुए भयानक भालों के बीच से भी मानो उड़कर निकल जाता था। वह बिना डरे ढालों की परवाह किए बिना उनमें से निकल जाता था। वह तलवारों के बीच में भी तेज़ी से दौड़ कर निकल जाता था। कहने का आशय यह है कि चेतक को कहीं भी कोई बाधा रोक नहीं पाती थी। वह युद्धभूमि में अपना पूरा युद्ध-कौशल दिखाता था।

 

है यहीं रहा, अब यहाँ नहीं
वह वहीं रहा है वहाँ नहीं।
थी जगह न कोई जहाँ नहीं
किस अरि-मस्तक पर कहाँ नहीं।
बढ़ते नद-सा वह लहर गया
वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल बज्र-मय बादल-सा
अरि की सेना पर घहर गया।
भाला गिर गया, गिरा निषंग,
हय-टापों से खन गया अंग।

वैरी-समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग।

 

शब्दार्थ
अरि-मस्तक – शत्रु का माथा                    नद –नदी

विकराल भीषण, भयंकर                        बज्र-मय पत्थर-सा कठोर, उग्र
घहर गरज, गंभीर आवाज                      निषंग तरकश, तूणीर
हय घोड़ा                                               टाप घोड़े के पैरों की आवाज़
खन गया घायल हो गया                      वैरी शत्रु
दंग हैरान

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व्याख्या – प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने राणा प्रताप के घोड़े चेतक की वीरता का गुणगान करते हुए बताया है कि राणा प्रताप के घोड़े चेतक की एक महत्पूर्ण विशेषता यह थी कि वह युद्धभूमि में एक जगह नहीं टिकता था। कभी वह युद्धभूमि में एक क्षण एक जगह दिखता तो दूसरे क्षण वहाँ नहीं मिलता। वह जहाँ दिखता था दूसरे ही क्षण वह वहाँ नहीं होता। युद्ध-भूमि में ऐसी कोई जगह नहीं होती थी जहाँ वह नहीं होता अर्थात् वह युद्धभूमि में बिना डरे सभी जगह पहुँच जाता था। ऐसा प्रतीत होता था जैसे युद्धक्षेत्र में वह प्रत्येक शत्रु के मस्तक पर विराजमान हो। जब वह दौड़ता था तब वह तेज बढ़ती नदी के समान लहराता हुआ प्रतीत होता था। युद्धभूमि में कभी कभी दौड़ते-दौड़ते वह कहीं-कहीं ठहर भी जाता था। फिर वह शत्रु-सेना पर भयानक बादल बनकर बज्र के सामान टूट पड़ता था अर्थात वह तो शत्रु सेना पर बादल की तरह छा जाता था। शत्रुओं के भाले और तरकश युद्धभूमि में गिर गए और घोड़े के पैरों की टापों से उनका सारा शरीर घायल हो गय़ा। घोड़े के ऐसे रंग-ढंग देखकर शत्रुओं का दल भी हैरान रह गया।

 

 

 

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