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Laghu Kathayen (laghukatha sangreh-Manjusha )Part -3

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Manjusha

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                                                   ज्ञान का मोल

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                  मनोहर की फैक्टरी में दिन रात काम होता, करोड़ों का बिज़नेस था उसका, समाज में बहुत प्रतिष्ठा  थी पर एक दिन जैसे किसी की नज़र लग गई उसके बिज़नेस को, फैक्टरी की मशीनें अचानक बंद हो गईं। बहुत यत्न किए पर सफलता नहीं मिली। जो मज़दूर यह सोचते थे कि वे मशीनें ठीक करना जानते हैं , उन्होंने भी अपना हाथ आजमा लिया पर कोई सकारात्मक परिणाम ना निकला। अंत में एक विशेषज्ञ को बुलाया गया , उसने मशीनों की जाँच की , मनोहर सहित सभी मज़दूर हसरत भरी निगाहों से उसे देख रहे थे। विशेषज्ञ ने पेंचकस निकाला , एक पेंच कसा ,एक को थोड़ा सा घुमाया और जैसे स्विच दबाया सारी मशीनें चल पड़ी।

          विशोषज्ञ ने पाँच हज़ार रुपये का बिल बनाकर खजांची को दे दिया। बिल देखकर खजांची हैरान था कि सिर्फ दो पेंच घुमाने के पाँच हज़ार रुपये। मालिक को बिल दिखाया तो वह भी हैरान हो गया और बिल देने में आनाकानी करने लगा और प्रश्न करने लगा कि ज़रा से काम के इतने अधिक पैसे क्यों ? विशेषज्ञ से बिल का पूर्ण विवरण देने के लिए कहा। विषेशज्ञ ने विवरण सहित बिल दुबारा बनाया –

पेंच कसने के ……………………………………… सौ रुपये

पेंच घुमाने के …………………………………………. पचास रुपये

  कौन सा पेंच घुमाना और कौन सा कसना है, इस जानकारी के चार   हज़ार आठ सौ, पचास  रुपये ,

  कुल पाँच हज़ार रुपये।

 

                                                     ज्ञान दान

 तीन घनिश्ठ मित्रों में बहस छिड़ गई, ऋशिक ने कहा धन का दान सर्वोपरि है, लक्ष्य ने कहा गोदान सर्वोपरि है, सुविज्ञ अपनी बात पर अड़ा रहा कि भूदान सर्वोपरि है। तीनों अपनी अपनी बात पर अड़े रहे और बात बहुत बढ़ गई। जब कोई ह लना नकला तो तीनों गुरु जी के पास पहुँचे। गुरु जी ने तीनों की बात का कोई उत्तर नहीं दिया, उन्होंने ऋशिक को धन देकर वापिस भेज दिया। मार्ग में ऋशिक को एक भिखारी मिला, उसने सारा धन भिखारी को दे दिया और संतुष्ट होकर लौट आया।

दूसरे दिन गुरु जी ने लक्ष्य को गाय दी और जाने के लिए कहा। लक्ष्य गाय लेकर निकल पड़ा , कुछ दूर जाने पर उसे भी वही भिखारी मिला, उसने भी अपनी गाय उसी भिखारी को दे दी और प्रसन्नतापूव्रक लौट आया।

तीसरे दिन गुरु जी ने भूमि का टुकड़ा सुविज्ञ को दिया और उसे भी जाने के लिए कहा।

सुविज्ञ को भी मार्ग में वही भिखारी मिला, उसने भूमि का वह टुकड़ा उस भिखारी को दान कर दिया।

कुछ दिनों बाद गुरु जी तीनों को लेकर उसी मार्ग से निकले, भिखारी आज भी कटोरा लिए वहीं खड़ा भीख माँग रहा था, भिखारी भीख माँगते  देख तीनों मित्रों को बहुत आष्चर्य हुआ। गुरु जी ने समझाया , दान वही सर्वश्रेश्ठ है जिसका सदुपयोग हो इसलिए ज्ञान दान ही सर्वश्रेश्ठ है।

 

                                                          बड़ा कौन

    वृहण राज्य के राजा श्वेतांक अपने शौर्य और पराक्रम के लिए आस- पास के सभी राज्यों में प्रसिद्ध था परंतु उसके मन में ईश्वर के प्रति आस्था बिल्कुल भी ना थी । प्रजा चाहती थी कि उनका राजा पराक्रमी होने के साथ साथ आस्तिक भी हो । प्रजा अपना नम्र निवेदन लेकर ऋषि अगस्त्य के द्वार पर पहुॅंचे और उनसे प्रार्थना की कि राजा को आस्तिकता का पाठ पढ़ाया जाए । ऋषि अगस्त्य ने वृहण राज्य के बाहर चंदन वन में अपना डेरा डाल दिया । ऋषि की बड़ाई सुनकर राजा श्वेतांक ऋषि से मिलने चंदन वन में उनकी कुटिया में पहुॅचे । ऋषि अगस्त्य ने राजा की ओर ध्यान ही नही दिया और अपने कुत्त्े को सहलाते रहे । राजा का क्रोध बढ़ता रहा और ऋषि अगस्त्य कुत्ते को सहलाते रहे । अंत में राजा ने क्रोध में आकर ऋषि अगस्त्य से कहा ,” तुम बड़े हो या तुम्हारा कुत्ता या मैं ?

” ना मैं बड़ा हूॅं राजन् और ना तुम , यह कुत्ता हम दोनों से बड़ा है जो रोटी का एकमात्र टुकड़ा देने वाले अपने मालिक के दरवाज़े पर वफादारी से पड़ा रहता है और एक तुम , हम हैं जो ईश्वर द्वारा प्रदत सभी तरह के आनंद भोगने के बाद भी उसका नाम तक नहीं लेते ।’’

 

                                                स्वर और ताल

    मंदिर में जागरण था गायक हरिप्रसाद ने जागरण में गाने की इच्छा व्यक्त की और उन्हें गाने का मौका भी दिया गया परंतु गाते – गाते उनकी ताल व स्वर चूक जाते थे । भक्तों ने हरिप्रसाद जी को उनकी गलतियाँ बताईं । हरिप्रसाद जी भड़क गए, बोले ,” तुम्हें स्वर और ताल से क्या मतलब, मैं तो अपने भगवान को रिझा रहा हँू ।’’

” मूर्ख तुम हमें तो रिझा नहीं पा रहे, भगवान को क्या रिझाओगे ।’’ भक्तों ने पलटकर जवाब दिया।

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                            संगति

   पिता ने अपने अति सुंदर, कोमल, मासूम बानक का चित्र बनवाया । चित्रकार का वह चित्र सबको इतना चसंद आया कि उसकी लाखों प्रतियाॅं बिकीं । पिता प्रतिदिन चित्र देखता और मन ही मन हर्षाता, उसकी बलाएँ लेता परंतु पिता की खुशी स्थाई नहीं थी । बालक बड़ा हुआ, समझााने और सही मार्ग दर्शन के बावज़ूद गलत संगत में पड़कर जेल पहुॅच गया । दस पंद्रह वर्ष बाद उसे लगा कि अब उसे दुष्टता प्रकट करने वाला चित्र बनाना चाहिए । अनुमति पत्र लेकर वह जा पहुॅंचा तिहाड़ जेल और कारगार में बैठे एक दुष्ट दिखाई देने वाले कैदी से बोला,” मैं तुम्हारा चित्र बनाना चाहता हूॅं ।’’

कैदी ने पूछा,” क्यों ?’’

चित्रकार ने बालक का चित्र दिखाते हुए बताया कि इस चित्र की लाखों प्रतियाॅं बिकीं और मुझे बहुत लाभ हुआ । अब मैं दुष्टता प्रकट करने वाला चित्र बनाना चाहता हूॅं।

चित्र देखकर कैदी रोने लगा और बोला,” यह चित्र मेरा ही है ।’’

 

 

 

 

 

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