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Parvat Pradesh Me Pavas -Mukhy Bindu , Vyakhya

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पर्वत प्रदेश में पावस

पर्वत प्रदेश में पावस

                                                    

पर्वत प्रदेश में पावस

PPT – पर्वत प्रदेश में पावस 

विडीओ – पर्वत प्रदेश में पावस कविता की व्याख्या

ऑडीओ – पर्वत प्रदेश में पावस कविता की व्याख्या

                                                                 मुख्य बिंदु 

पावस ऋतु में प्रकृति में अनेक नए -नए परिवर्तन आते हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि प्रकृति हर पल अपना परिधान बदलकर,अपना रूप बदल रही है। वर्षा ऋतु में मौसम हर पल बदलता रहता है। कभी तेज़ बारिश आती है तो कभी मौसम साफ हो जाता है। तालाब जल से भर उठता है और पर्वत अपनी पुष्प रूपी आँखों से अपने चरणों में स्थित तालाब में अपने आप को देखता हुआ प्रतीत होता है।

पर्वत पर भाँति- भाँति के फूल खिल जाते हैं। अचानक बादल छा जाने से पर्वत और झरने अदृश्य हो जाते हैं।बादलों के धरती पर आ जाने के कारण ऐसा लगने लगता है जैसे आसमान धरती पर आ गया है। कोहरा धुएँ की तरह लगने लगता है जिसके कारण लग रहा है कि तालाब में आग लग गई है और तालाब से धुआँ उठ रहा है। शाल के वृक्ष बादलों में खोए से लगते हैं ,आकाश में उड़ते बादल इंद्र देवता के उड़ते विमान से लगते हैं।

             ‘मेखलाकार ‘ शब्द मेखला+कार से मिलकर बना है। जिंसका अर्थ है – करघनी अर्थात कमर का आभूषण। कवि ने यहाँ इस शब्द का प्रयोग पर्वत की विशालता दिखाने के लिए किया है क्योंकि पर्वत की श्रृंखला करघनी की तरह टेडी-मेड़ी, विशाल है इसीलिए कवि ने पर्वत की श्रृंखला की तुलना करघनी से की है।

                  ‘सहस्र दृग – सुमन ‘ से कवि का तात्पर्य पहाड़ों पर खिले हजारों फूलों से है। कवि को ये फूल पहाड़ ही आँखों के समान लग रहे हैं। कवि ने कल्पना की है कि पर्वत इन फूल रूपी आँखों से ,अपने विशालकाय आकार का प्रतिबिंब, तालाब के जल में देख रहा है। कवि ने फूलों का पर्वतों के नेत्र के रूप में मानवीकरण किया।  

           कवि ने तालाब की समानता दर्पण के साथ दिखाई है। इसका कारण यह है कि पर्वतीय प्रदेश में पर्वत के पास स्थित जल से परिपूर्ण तालाब का जल अत्यंत स्वच्छ और निर्मल हैं । इसी जल में पहाड़ अपना प्रतिबिंब ऐसे देख रहा है मानो तालाब दर्पण हो।

    कविता में कवि ने बहते हुए झरनों की मधुर कल- कल ध्वनि का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है। ऐसा लगता है मानो झरने मधुर आवाज़ में पर्वतों के गौरव का गान कर रहे हैं अर्थात् पर्वतों की महानता, विशालता और उच्चता को देखकर प्रसन्न हो रहे हैं तथा उनकी गौरवगाथा का गान कर रहे हैं। कवि ने बहते हुए झरनों की तुलना चमकदार मोतियों से की है। फ़ेन युक्त झरने सफेद मोतियों की लड़ियों के समान सुन्दर लग रहे हैं जो मधुर ध्वनि करते हुए उमंग व जोश से परिपूर्ण तथा प्रसन्नचित्त है।

        पर्वत के हृदय से उठे ऊँचे- ऊँचे वृक्ष आकाश की ओर इसलिए देख रहे हैं क्योंकि वे आकाश की ऊँचाइयों को छूना चाहते हैं। उनके हृदय में उच्च आकांक्षाएँ छिपी है जिन्हें वे पूर्ण करना चाहते हैं और अपना लक्ष्य सामने न पाकर वे चिंतित भी हैं और इन आकांक्षाओं को पूर करने के उपाय के लिए चिंतनशील से प्रतीत हो रहे हैं।  

                 कवि इन ऊँचे- ऊँचे वृक्षों के माध्यम से मनुष्य की महत्वकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करता है। मनुष्य को भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपने लक्ष्य पर  नजर केंद्रित करनी चाहिए और चुपचाप शांत स्वभाव से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। पर्वतीय प्रदेश में जब तेज़ वर्षा होती है तो वातावरण अत्यंत भयानक दिखाई देता है, तेज़ वर्षा के कारण पूरे प्रदेश में धुआँ उठता प्रतीत होता है ऐसा लगता है मानो आकाश ने  वर्षा रूपी बाणों से धरती पर आक्रमण कर दिया है।

घने कोहरे के कारण वस्तुएँ अदृश्य होने लगती है। तेज़ मूसलाधार वर्षा के कारण शाल के वृक्ष भयभीत होकर धरती में धँसे प्रतीत होते हैं ।घनी धुंध के कारण लगता है मानो शाल के पेड़ कहीं उड़ गए हों अर्थात गायब हो गए हों। ऐसा लग रहा है कि पूरा आकाश ही धरती पर आ गया हो ,केवल झरने की आवाज़ ही सुनाई दे रही है। कवि कल्पना करता है कि प्रकृति का ऐसा भयानक रूप देख कर शाल के पेड़ डर कर धरती के अंदर धँस गए हैं।              

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                                                                       व्याख्या

              पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेष,

              पल- पल परिवर्तित प्रकृति- वेष।

           मेखलाकार पर्वत अपार

           अपने सहस्र दृग- सुमन फाड़,

           अवलोक रहा है बार- बार

           नीचे जल में निज महाकार,

               जिसके चरणों में पला ताल

               दर्पण- सा फैला है विशाल

शब्द अर्थ –

पावस ऋतु – वर्षा ऋतु

पर्वत प्रदेश – पर्वतीय इलाक़ा

पल-पल- हर पल, थोड़ी-थोड़ी ली डर में

परिवर्तित – बदलना

प्रकृति वेश – प्रकृति का रूप

मेखलकार – करघनी के आकार की पहाड़ की ढाल

अपार – जिसका पार न हो

सहस्र – हज़ार
दृग -सुमन – पुष्प रूपी आँखे
अवलोक – देखना

निज – अपना
महाकार – विशाल आकार
ताल – तालाब

दर्पण – आईना

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने पर्वतीय क्षेत्र में वर्षा ऋतु का अत्यन्त मनोहारी व सजीव चित्रण किया है। कवि कहते हैं कि वर्षा ऋतु में पर्वतीय प्रदेश में प्रकृति क्षण-क्षण में अपना रूप बदल रही थी। ऐसा लगता था मानो प्रकृति हरपल अपना परिधान बदल रही हो। विशाल आकार वाले पर्वत की ढलान देखकर लगता था जैसे वह धरती की करधनी हो।

ये विशाल आकार वाले ऊँचे-ऊँचे पर्वत दूर-दूर तक फैले हुए थे और उन पर हजारों फूल खिले थे, जो पर्वत की आँखो के समान लग रहे थे। पर्वत के पैरों के पास अत्यंत विशाल तालाब दर्पण के समान फैला था, जिसमें पर्वत की परछाई दिखाई दे रही थी। ऐसा लग रहा था मानो पर्वत अपनी हजारों फूल रूपी आँखो से तालाब रूपी दर्पण में अपना विशाल आकार देख रहा हो।

 

 

           गिरि का गौरव गाकर झर -झर

           मद में नस- नस उत्तेजित कर

           मोती की लड़ियों- से सुंदर

           झरते हैं झाग भरे निर्झर।

           गिरिवर के उर से उठ- उठ कर

           उच्चाकांक्षाओं से तरूवर

           है झाँक रहे नीरव नभ पर

           अनिमेश, अटल, कुछ चिंता पर।

 

शब्द अर्थ –

गिरि – पहाड़
मद – मस्ती
झग – फेन
उर – हृदय
उच्चांकाक्षा – ऊँच्चा उठने की कामना
तरुवर -पेड़
नीरव नभ शांत – शांत आकाश
अनिमेष – एक टक

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने पर्वत से बहते झरनों की मधुर ध्वनि और ऊँचे वृक्षों के सौंदर्य का मनोरम चित्र प्रस्तुत किया है। कवि कहता है कि पहाड़ों से गिरने वाले ये झाग भरे झरने देखकर ऐसा लगता है मानो यह झरने पर्वत की महिमा का गुणगान कर रहें हों। ये झाग भरे झरने मोतियों की लड़ियों के समान सुंदर प्रतीत होते हैं। झरनों की मधुर ध्वनि से रग-रग में नया जोश भर जाता है और मन आनंदित हो जाता है।

पहाड़ पर ऊगे बड़े-बड़े शाल के वृक्ष, मनुष्य के मन में उठने वाली बड़ी-बड़ी महत्वकांक्षाओं के समान लंबे हैं। ऐसा लगता है मानो पेड़ों के हृदय में भी ऊंची ऊंची आकांक्षाएं छिपी हूँ।। ये पेड़ शांत आकाश को एक तक और अटल भाव से झांक रहे हैं लेकिन ऐसा लगता है मानो किसी चिंता में भी डूबे हैं जैसे ये अनंत आकाश में छिपे रहस्य को जानना चाहती हूँ।

 

           उड़ गया, अचानक लो, भूधर

           फड़का अपार पारद के पर।

           रव- षेश रह गए हैं निर्झर।

           है टूट पड़ा भू पर अंबर।

                 धॅंस गए धरा में सभय षाल !

                 उठ रहा धुआँ, जल गया ताल।

                 यों जलद- यान में विचर -विचर

                 था इंद्र खेलता इंद्रजाल।

       

शब्द अर्थ –

 

भूधर – पहाड़
पारद *  के पर-  पारे के समान धवल एवं चमकीले पंख
रव -शेष – केवल आवाज का रह जाना
सभय – भय के साथ
शाल- एक वृक्ष का नाम
जलद -यान – बादल रूपी विमान
विचर- घूमना
इंद्रजाल – जादूगरी

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने प्रकृति के क्षण क्षण बदलते अनोखे स्वरूप का वर्णन किया है। वर्षा ऋतु में धुंध के कारण पर्वत दिखाई नहीं दे रहा, कभी कल्पना करता है कि ऐसा लग रहा है जैसे पर्वत पारे के समान सफेद बादलों के चमकीले पंख लगाकर आकाश में उड़ गया है। धुंध के कारण पहाड़ से गिरते झरने और दृश्य हो गए हैं उन केवल उनकी आवाज ही शेष रह गई है।

अचानक मूसलाधार वर्षा होने लगी है ऐसा लगता है मानो आकाश ने अपने वर्षा रूपी बाणों से धरती पर आक्रमण कर दिया है और इस आक्रमण से भयभीत होकर शाल के पेड़ धरती में धस गए हैं। तालाब से उठता धुआं देखकर ऐसा लग रहा है मानो तालाब में आग लग गई है। ऐसा प्रतीत होता है मानो इंद्र देवता भी बादलों के विमान में सवार होकर चारों ओर घूम घूम कर अपना मायावी जाल फैलाकर ,जादू का खेल दिखा रहे हैं।

 

 

 

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